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Saturday, 17 January 2015

बद-दुआ

क्यों करें फ़िक्र इस ज़माने की
इसको आदत है बस  रुलाने की...
पत्थरों के जो फूल होते तो
क्या महक होती आशियाने की...
वो मेरा था जो अब मेरा न रहा
कोशिशें ख़त्म हुयी मनाने की...
रात के साथ अँधेरे जवान होते हैं
ये घड़ी जुगनुओं के आने की...
याद के जुगनुओं को रोक तो ले
कोशिशें कर उन्हें भुलाने की...
आंसुओं से नहीं वो पिघलेंगे
उनको आदत है भूल जाने की...
छोड़ दामन जो मुझसे दूर गए
क्या जरूरत है मुस्कराने की...
दोस्ती दोस्तों से हार गयी
दुश्मनी साथ है निभाने की...
उम्र भर साथ हम रहेंगे सदा
झूठी कसमें थी बस दिखाने  की...
तुझको तुझसे मिले वफाओं  में
और लगे बददुआ ज़माने की  ....