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Wednesday 25 February 2015

एक दबी आग

बुझती नहीं ताउम्र एक बार जो जल जाती है,
वक़्त के कदमों तले वो  राख़ में छिप जाती है ।
बेचैन  रहती थी जो एक झलक पाने को ,
सामना होते ही वो अंजान नज़र आती है,
पास आते ही जो गले लग के लिपट जाते थे ,
देख कर दूर से अब राह ही मुड़ जाती है,
पतंग की डोर से पहुंचाते थे जो खत मुझको,
हाल उनका ये  हवाएँ भी नहीं बताती हैं,
याद आ जाऊँ मैं शायद उन्हें फुर्सत में,
सुना है उनको अब फुर्सत  नहीं मिल पाती है,
बेसब्र हवाओं से कभी  राख़ जो उड़ जाती है,
एक दबी आग फिर से उभर जाती है।

Monday 9 February 2015

शिलान्यास का पत्थर

निकल कर  कोख से वो आसमान नापता है,
अभिमान की खुमारी में वो देखो कैसे हांकता  है,
चलने वाले भी बहुत हैं उसके पीछे पीछे,
दिखा कर दर्द खुशियों के वो सपने बांटता है ,
दाग लगते ही  नहीं उसका श्वेत लिबास है,
मिलता है झुक कर,वाणी में मिठास है ,
देती हैं गालियां ,टूटी सड़कें ,नालियां ,
शिलान्यास का पत्थर ही इनका विकास है....