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Wednesday 30 December 2015

तेरे ख़त

तन्हाइयों की सिकुड़न जब हद से गुज़रती  है ,
तेरे ख़त , मैं दराज़ों से निकाल लेता हूँ ....
नर्म लिखावट से लिपटे आंसुओं के टुकड़े ,
लबों से लगा कर कुछ प्यास बुझा लेता हूँ ,
महकती है मुहब्बत ख़तों  से आज भी ,  
कि ख़त फूल कभी मुरझाते नहीं हैं ,
हाँ , ये खुद रोते हैं फूट फूटकर ,
कि
ख़त लिखने वाले, अब कभी आते नहीं हैं ........
अनिल

Monday 28 December 2015

नए वर्ष तुम्हारा स्वागत है

वक़्त के तिरछे रैम्प पर
मखमली ख्वाबों को फिसलने दो
ज़ख़्मी सिसकती एड़ियों पर
दिखावे के मरहम को मलने दो
वक़्त की चोट से उधड़ चुकी
चमड़ी की परतों को
मखमली चादर से ढक दो ,
मेरे हताशा भरे चेहरे पर
नकली मुस्कराहट का
मुलम्मा चढ़ा दो ,
हारा थका हूँ तो क्या ,
मुझे भी चलने दो ,
जगमगाती रंगीन रोशनी में ,
थिरकते हुए संगीत पर ,
नए ज़माने के फैशन के साथ ,
हाथ में फूलों का गुलदस्ता लिए ,
इक नशा खड़ा है कुछ दूर मुझसे ।
मैं अपने ज़ख्मों को छिपाए ,
बेताब हूँ उससे मिलने को ,
और ये कहने को ,
"नए वर्ष तुम्हारा स्वागत है" !
अनिल कुमार सिंह

बीते वर्ष

लगा रहने दो अपने ,
बेवज़ह
मुस्कराते हुये
मुखौटे को ,
तुम्हें देख कर
रूह
कांप जाती है मेरी ,
तुम्हारी हंसी में
जाने कितनी
चीख़ों के दर्द हैं ,
फटी हुयी ज़मीं की
घबराहट है ,
अपनो से
बिछुड़ने के ग़म हैं ,
खेतों की फटी
बिवाइयाँ हैं ,
और खूनी फसलें भी
जो तुमने उगाई थी
अपने हाथों से ,
अपनी जेबों में
भरे बारूद को भी
अपने साथ ले जाओ ,
अब बस! चले जाओ!
चले जाओ !
मैं नहीं देख सकता
बीते वर्ष ,
बहुत रुलाया है तुमने,
लगा रहने दो अपने
मुखौटे को,
मैं तुम्हारा
असली चेहरा
नहीं देख सकता ......

अनिल कुमार सिंह

Friday 25 December 2015

स्मृतियों के अवशेषों के दरवाजों को
खटखटाते हैं ,कुछ ऋतुओं के पल ,
कुछ नहीं बस कंटकों के शीर्ष पर,
कहीं कहीं कुछ फूल मुरझाए पड़े हैं ,
उदास रंगों से कह जाते है जैसे ,
सूख कर हम ,अब भी हैं महकते ,
न न, छूना नहीं एक पल में बिखर जाएँगे,
ये बिछुड़ी मुहब्बत है ,बस दूर से ही महकने दो ...........

अनिल

एक पत्थर और मारो .........

चल रहा गति में वो अपनी,
छिद्र से छिप कर निहारो,
ज़ख़्मों के ईंधन से चलता,
एक पत्थर और मारो ।

जो तपा झंझावातों में,
दम रहा उसकी बातों में ,
आँधियाँ रुक मार्ग देती ,
रुका नहीं काली रातों में ,
उसको जो चाहे पुकारो ,
एक पत्थर और मारो ,

रास्ते के पत्थरों को,
तराशता निर्बाध निर्झर,
शूल खुद राहें दिखाते,
सत्य पर रहता जो निर्भर,
सत्य की सूरत सँवारो ,
एक पत्थर और मारो .........

अनिल कुमार सिंह

Saturday 19 December 2015

विरासत का फर्ज़

कहानी शीर्षक : विरासत का फर्ज़

रोज़ सुबह शाम के चूल्हे की चिंता, ऊपर से बीमार घरवाली ,बच्चों को स्कूल भेज कर रामू अपने ठेले को दिन भर के धंधे के लिए गाँव के चौराहे व्यवस्थित कर रहा था ,सर्द मौसम में चबैना खाने वालों की संख्या बढ़ जाती है , इसलिए गर्मी के मौसम में गन्ने का जूस बेचने वाला रामू सर्दियों में गरमा गरम चबैना बेचने का काम करता था ,गाँव में चौराहे पर सुबह शाम ठीक-ठाक भीड़ हो जाती थी,कुछ नकद ,कुछ उधार रामू का गुज़ारा हो जाता था । आज बहुत ठंड थी और कोहरा भी , रामू एक बड़ी कढ़ाई में बालू को चूल्हे पर
गरम कर अपने कारोबार शुरू करने के लिए प्रयासरत था ,और चौराहे पर कुछ जानवरों के अलावा कोई नहीं था । धुन्ध भरे चौराहे पर  शहर से आने वाली पहली बस रुकी ,कोई उतरा !शायद महिला ! अपनी तरफ परछाई को आते देख रामू कढ़ाई में तेज़ी से हाथ चलाने लगा, युवती ठेले के पास खड़ी थी और रामू तेज़ी से हाथ चलाये जा रहा था ।
“सुनो!’
“जी बहन जी’’,
“यही रामगंज है ,”
“जी बहन जी,’’
“पी.एच.सी. कहाँ है” ?
यहीं पंचायत भवन के पास ,बाद यहाँ से दो मिनिट पैदल चलिये बहन जी ,वहीं है ...पर इस समय कौनों नहीं मिलेगा ऊंहा, चबैना खाएंगी बहन जी ,बहुत गरम है...
नहीं, जैसे ही महिला आगे चलने को हुयी ,रामू ने कहा ,
ले लीजिये बहन जी ,बोहनी आज आपके हाथ से हो जाएगी ,वैसे भी अस्पताल में अभी कोई नहीं होगा ,9 बजे के बाद खुलेगा बहन जी।
अच्छा चलो बना दो ... महिला ठेले के पास लगी लकड़ी की बेंच पर बैठ गई ....
“तुम्हारा नाम क्या है “?
“रामू , सब रामू भूज नाम से जानते हैं बहन जी ”,
आप यहाँ ईलाज करने कहाँ से आई हैं बहन जी ,यहाँ डॉक्टर नहीं है बहन जी ,पर दवा पट्टी हो जाती है ,बगल में बंगाली डॉक्टर है ,आप चाहें तो उन्हें दिखा सकती हैं ,रामू जल्दी जल्दी बोले चला जा रहा था ,एक अखबार के लिफाफे में चबैना निकाल कर महिला को पकड़ाते हुये बोला , “सिर्फ पाँच रुपए बहन जी” ।
महिला मुस्करायी और पाँच रुपए अपने पर्स से निकाल कर देते हुये बोली ,
“मैं इसी अस्पताल में नई डॉक्टर हूँ” ।
रामू रुपए हाथ में पकड़ कर सन्न हाथ जोड़े खड़ा हो गया, धीमे स्वर में बोला “डॉक्टर साहिबा माफ करिए ,मैं कम पढ़ा लिखा हूँ ,आपको पहचान नहीं पाया । भगवान की बहुत बड़ी किरपा है साहब जो आप हमारे गाँव में आ गई , हम लोग बहुत परेशान हैं ,कोई इलाज़ नहीं मिल पाता साहब , महंगायी के कारण झोला छाप डॉक्टर के जाना पड़ता है , तसल्ली कर लेते हैं कि इलाज़ हो रहा है,
मर्ज पकड़ में आया तो ठीक वरना राम नाम सत्य हो जाता है साहब” ।
“अरे! नहीं , नहीं मेरे पैर न छूओ रामू ”...
“साहब! बहुत परेशान हूँ ,मेरी बीबी कई दिनों से बिस्तर पकड़े है, बहुत रुपया खर्च हो गया , दो छोटे छोटे बच्चे हैं , आपकी दया की जरूरत है ,साहब !”
इतना कह कर रामू रोने लगा ...
उसको रोता हुआ देख महिला ने कहा...
“सुनो ! तुम कल ही उसे अस्पताल ले आना , वह ठीक हो जाएगी ”...
साहब ! वह तो चल भी नहीं सकती है , बस कुछ दिन की मेहमान है साहब ....
रामू की आंखो में दर्द को देख महिला ने कहा , “अच्छा तो आज ही दो बजे मैं तुम्हारे घर चलूँगी, ठीक है” !
“अरे साहब ,आपकी बहुत बहुत किरपा होगी ,साहब , भगवान आपको अपने रूप में हमको मिला दिया” ...
“अरे नहीं ,मैं तो इसी काम के लिए इस गाँव में आई हूँ ,
कुछ भी हो तुम्हारा चबैना स्वादिष्ट था” , यह कहते हुये वह अस्पताल की ओर चल पड़ी।
रामू की आँखों में आज कोहरे सी उदासी नहीं थी , धुन्ध के छंटने के साथ साथ उसकी बिक्री भी बढ़ गई, वह बस दो बजने का इंतज़ार कर रहा था ,बच्चे भी स्कूल से लौट कर उसके ठेले के पास आ गए थे ,दोपहर का खाना बच्चे स्कूल में ही खा लेते थे , पत्नी के लिए वह दाल का पानी घर पर रख आया था ,और खुद ऐसे ही इधर उधर खा कर काम चला लेता था ,अपनी कमाई से शाम के चूल्हे का इंतज़ाम ही कर पाता था ,बाकी कमाई इलाज़ में चली जाती थी । वह दो बजे से पहले ही अपने बच्चों को साथ लेकर अस्पताल पहुँच गया ,दूर से ही डॉक्टर ने उसे देख लिया और उसे अंदर बुलाया ,
“तुम्हारे साथ दो बच्चे भी तो थे”,
“जी ,बाहर खड़े है,साहब” !
“अच्छा, चलो तुम्हारे घर चलते हैं” ,
“बच्चों! नाम क्या है तुम्हारा”?
“मेरा सीता और मेरा रमेश”
दोनों ने बारी बारी से जवाब दिया।
“दोनों जुड़वा हैं साहब ,चार में पढ़ते हैं ,
मेरा घर यहीं बगल में है साहब ,ज्यादा पैदल नहीं चलना पड़ेगा” ,
कुछ दूर पैदल चलने के बाद वह अपने घर पहुँच गया ,
वह तेजी से एक लकड़ी की कुर्सी ले आया और उसे एक कपड़े से साफ करने लगा,
“अरे नहीं रामू ! हम बैठने नहीं आए हैं , तुम्हारी पत्नी कहाँ है” ,
“भीतर है साहब ,
चलिये! अंदर चलिये” ,
रामू का घर पक्का और बहुत बड़ा था ,घर का रखरखाव ठीक न होने से पुराना सा लगता था ,यह कहने के लिए पर्याप्त था कि, कभी इस घर की आर्थिक दशा ठीक रही होगी।
एक पलंग पर अस्त व्यस्त बिस्तरों के बीच एक अत्यंत दुर्बल शरीर रह रह कराह रहा था।
“देखो कौन आया है , हमारे गाँव की नई डॉक्टर साहिबा ,तुम्हें देखने घर तक आई हैं!” ,
रामू की पत्नी ने धीरे से आँखें खोली और कराहते हुये बैठने की नाकाम कोशिश करने लगी ,बेचारी बैठ नहीं सकती थी ,शरीर में इतना दम ही कहाँ था ।
डॉक्टर ने आँख की पुतलियों को उठाकर देखा ,नब्ज़ देखी ,और अपने स्टेथोस्कोप को पीठ और छाती पर लगा कर कुछ चैक किया, बगल में मिट्टी का बर्तन पड़ा था जिसमे कफ पड़ा था , डॉक्टर ने रामू को कहा ,
“थोड़ा कफ एक छोटी डिबिया में रख कर मुझे दे दो” ।
फिर एक डिस्पोजल सूई निकाल कर खून का नमूना भी लिया और कुछ दवाइयाँ भी दी , खाने के बारे में समझा कर मुड़ी ही थी, कि कमरे की दीवार पर लगे एक प्राचीन चित्र पर उसकी नज़र पड़ी तो वह ठिठक सी गई ,और रामू से आश्चर्यजनक तरीके से सवाल किया,
“ये तस्वीर किसकी है” ?
“मेरे दादा की” ,
दादा?
हाँ,वे यहा के बड़े वकील थे ,
“तुम्हारे पिताजी” ?
“वो कानपुर में रहते हैं ,यहाँ कभी नहीं आते” ,
अच्छा? इतना कह कर जाने क्या सोचने लगी।
रामू हाथ जोड़ कर पूंछने लगा ,
“डॉक्टर साहब क्या ये ठीक हो जायेंगी”?
“देखो रामू मेरा नाम सुनीता है , तुम्हारी बीबी की तबीयत बहुत खराब है ,जांच रिपोर्ट आने के बाद पता चल पाएगा” ,
“डॉक्टर सुनीता जी ,इलाज़ में खर्चा कितना आएगा” ?
रामू ने डरते हुये सवाल किया ,
रामू के कंधे पर हाथ रख सुनीता ने कहा , “ये सब तुम मुझ पर छोड़ो ,तुम्हारा एक भी पैसा नहीं लगेगा”,
डॉक्टर की ऐसी बात सुनकर रामू ,उसकी पत्नी,और बच्चों के भीतर खुशी की चमक आँखों से झलकने लगी ।
मैं कल सुबह फिर तुमसे तुम्हारी दुकान पर मिलूँगी ,तब बता पाऊँगी कि, क्या स्थिति है। ऐसा कह कर डॉक्टर सुनीता ने अपना पर्स संभाला और चौराहे पर बस पकड़ने के लिए रामू के साथ चल दी। बस के आने पर रामू ने बस रुकवाकर सुनीता को विदा किया ,बस के चले जाने के बाद भी बहुत देर तक वहीं खड़ा रहा ,फिर देर शाम तक के कारोबार के बाद वापस घर चला गया । उस रात रामू पूरी तरह से सो नहीं सका ,बार बार डॉक्टर सुनीता की बात और दरियादिली के बारे मैं सोचता, बार बार उठ कर अपनी पत्नी के सिर पर हाथ रखता और कहता, तुम ठीक हो जाओगी ,डॉक्टर जरूर कुछ न कुछ करेंगी। ईश्वर को बार-बार धन्यवाद देता ,बच्चों को भी आने वाली खुशी का हवाला देता। जिसने जिंदगी में सिर्फ दर्द ही देखें हो वह मरहम को देखने से ही खुश हो जाता है , पैदा होने से पहले पिता का साथ छूट गया , कभी भी पिता का साया महसूस नहीं कर पाया ,माँ भी अपने पति के असमय वियोग से चल बसी, कम उम्र में अकेला रह गया ,इतने बड़े घर में ।पत्नी और बच्चों के साथ खुशियों पर बीमारी का ग्रहण लग गया ,जितना कमाता था बस इलाज़ ,इलाज़ और इलाज़...
देखते देखते सुबह हो गई, रामू रात में भीगा कर रखे हुये चने, मटर ,मूंगफली को सँजोने लगा ,बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करने पर पत्नी के पास गया और हाथ थाम कर बोला, भगवान चाहेगा तो तुम जल्दी ठीक हो जाओगी। मैं चलता हूँ ।वह अपने साजो समान के साथ खुशी-खुशी भरे कोहरे में धीरे-धीरे अपने ठेले को लेकर चौराहे की ओर चल पड़ा।
रामू आज डॉक्टर सुनीता के आने का इंतज़ार कर रहा था ,सुबह से कई बस आ गई, पर सुनीता नहीं आ रही थी ,बेसब्री में रामू चबेने में किसी के चटनी डालना ही भूल जाता तो किसी के नमक । इंतज़ार के कोहरे में खुशियों की धूप छिपी थी ,उस धूप की गुनगुनाहट को रामू महसूस करना चाहता था ,क्यों कि वह और उसका परिवार गहन वेदना से गुज़र रहा था ।
बच्चे रोजाना की तरह आज भी स्कूल से अपने पापा कि चलती फिरती दुकान पर पहुँच गए थे,
“पापा मम्मी कब तक ठीक होंगी”? सीता ने पापा से पूंछा ,
“पता नहीं” ,रामू उदास स्वर से बोला ।
“जल्दी ही ठीक हो जाएंगी तुम्हारी मम्मी” , सुनीता ने पीछे से कहा
“अरे डॉक्टर सुनीता जी आप” !
“हम कब से आपका इंतज़ार कर रहे थे”,
“तुम्हारी पत्नी की रिपोर्ट्स जो लेनी थी ,वही लेने में देर हो गई । खैर तुम्हें बता दूँ कि तुम्हारी बीबी को क्षय रोग है, यानि टी बी ,
चिंता न करो अगर सही तरीके से इलाज़ कराओ तो पूरी तरह से ठीक हो जाएगा ,दवाएं मैं तुम्हें दूँगी और एक समय अपने हाथ से खिलाउंगी”....पूरी बात रामू हाथ जोड़े सुनता रहा ।
“तुम चिंता न करो रामू भैया ,मैं हूँ न ,शायद ईश्वर ने मुझे इसीलिए यहाँ भेजा हो” ।
इतना कह कर वो बोली ,”क्यों चुप चाप खड़े हो ,चबैना नहीं खिलाओगे” ,
रामू ने झटपट चबैना बनाकर एक लिफाफे में रख कर सुनीता के हाथ में पकड़ा दिया । बच्चों को पुचकारते हुये सुनीता ने कहा , “घर जाने से पहले मैं रोजाना एक बार तुम्हारे घर आऊँगी ,तुम्हारी मम्मी को देखने”।
रामू का घर ,अस्पताल और चौराहे में कोई विशेष दूरी नहीं थी।
दोपहर बाद डॉक्टर सुनीता हाथ में बड़ा दवाई का डिब्बा लेकर रामू के घर पहुंची और उसकी पत्नी को भाभी कह कर दवाई लेने के समय और तरीकों के बारे में बताने लगी ,रामू की पत्नी की पथराई आंखे सुनीता को एक टक देख रही थी , मानो पूंछ रही हों कि तुम कौन हो ? क्या रिश्ता है मेरा और तुम्हारा ?
सुनीता बार-बार दीवार पर लगे चित्र को देखती और कुछ सोचने लगती। सुनीता ने रामू से पूंछा तुम्हारे पिताजी का क्या नाम था “राम सेवक गुप्ता” कानपुर में वकालत करते थे ।
“तुमने कभी अपने पिता को देखा?” ,
“नहीं ,वो मेरे पैदा होने से पहले मेरी माँ को छोड़ कर शहर चले गए थे ,वापस नहीं लौटे” ।
और क्या जानते हो उनके बारे में ?
“ज्यादा कुछ नहीं ,सुना है अब वो इस दुनिया में नहीं” ।
सुनीता ने अपने हाथ से रामू की पत्नी को दवा खिलाई और कहा कि इतवार को अपने से दवाई खाना न भूलना ,बाकी सारे दिन मैं दवाई खिलाने आया करूंगी । पीछे रामू हाथ जोड़े खड़ा था, सुनीता के आने और दवाई खिलाने का सिलसिला लगातार चलता रहा । सुनीता अपने दादा की तस्वीर रामू के घर में देख समझ गई थी, कि यही उसके भी दादा का घर है ,रामू उसका सौतेला भाई है ,इस गाँव में पोस्टिंग लेने का उसका उद्देश्य भी यही था, कि वह अपने बिछुड़े हुए परिवार से मिल सके ,पर इतनी जल्दी और इस हालत में उसकी मुलाकात होगी, ऐसा सोचा ही नहीं था । वह अपने गाँव के बारे में जितना पापा से सुना था उतना जानती थी ,किन्तु उसे अपने किसी भाई भाभी के बारे में कुछ नहीं पता था ,कभी कुछ बातें होती भी तो उसे देख सब चुप्पी साध लिया करते थे ,किन्तु अब वह बड़ी और समझदार हो गई थी ,उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह कैसे बताए रामू को अपनी असलियत।
देखते देखते रामू कि पत्नी कि हालत में सुधार होने लगा ,वह बिस्तर छोड़ उठने बैठने लायक हो रही थी ,पर पूरी तरह से ठीक होने में अभी कुछ महीने बाकी थे। सुनीता अपने ससुराल से गाँव आया करती थी , उसके सामने अपनी बातों को साझा करने के लिए कोई नहीं था ।ओह! जीवन के कितने रंग हैं, न जाने कितने रंग देखने बाकी हैं,रामू और उसके परिवार की ये हालत का कारण कहीं मैं और मेरी माँ तो नहीं, यकीनन हम ही तो... .....क्या कारण रहा होगा जो पिताजी ने अपनी ही संतान और परिवार के बारे में कुछ नहीं सोचा
,कुछ भी हो वो मेरा भाई है ,और उसके बच्चे ,उफ़्फ़... मेरा क्या फर्ज़ बनता है ... मुझसे जो बन पड़ेगा ,मैं करूंगी ....
डॉक्टर के रूप में वह पूरे गाँव की सेवा कर रही थी ,कोई नहीं जनता था कि सुनीता कौन है, सबको चाचा , भैया भाभी और चाची सम्बोधन से बुलाती, उसे गाँव का बड़ा स्नेह मिल रहा था ,और गाँव को झोला छाप डॉक्टर से निजात मिल रही थी और गाँव की सेहत भी सुधर रही थी।
रामू की पत्नी को दवाई खिलाते लगभग 6 महीने होने वाले थे , अब रामू की पत्नी खुद सुनीता का स्वागत करती , रामू का घर अब सुव्यवस्थित लगता था, बच्चे भी साफ सुथरे कपड़े पहनने लगे थे, हो भी क्यूँ न, एक महिला जो बीमार थी अब ठीक हो गई थी ,जो घर की धुरी होती है । सुनीता के आने पर भावुक होकर जब भी रामू की पत्नी उसके पैर छूती तो सुनीता मना कर देती ,कहती अरे!
आप मुझसे बड़ी हैं । आप ने मुझे नया जीवन दिया है बहन जी ,वरना अब तक तो मेरे बच्चे बिन माँ के हो गए होते,कहते कहते रामू  की पत्नी भावुक हो जाती । सुनीता सब सुन रही थी किन्तु कई सवाल उसके माँ में सुलग रहे थे ...उसने रामू की पत्नी से पूंछा , ये बताओ , “तुम्हारे खेत-वेत और बाग भी तो है न ...... उसने अपने पिता से इन सब के बारे में सुना था” ...
“हाँ डॉक्टर साहब ,बाग तो बहुत पहले बिक गया था , और खेत जितने भी थे रेहन पर हैं” ,
“रेहन” ?
“जी गिरवी पर”,
मेरी बीमारी का खर्च इतना ज्यादा था, कि उन्हें गिरवी रखना पड़ा ,जहां जहां भी दिखाया मर्ज पकड़ में नहीं आया और तबीयत ज्यादा
बिगड़ती गई।
कितने रुपए में गिरवी हैं तुम्हारे खेत ?
“15000 रूपये में” ।
‘ओह !सिर्फ 15000 में’ ,
“जी ,गिरवी में कोई ज्यादा पैसे नहीं देता ,
खेत थे तो साल भर का खाना खर्चा खेत से निकाल जाता था” ,
“मैं तुम्हें 15000 रुपये दूँगी तुम अपने खेत छुड़वा लेना ।
ठीक है मैं चलती हूँ”।
शाम को रामू के घर पर आने पर जब रामू की पत्नी ने सुनीता की बातों के बारे में बताया तो रामू चिंता में पड़ गया ,और कहने लगा कि मैं अपने खेत स्वयं छुड़वा लूँगा ,क्यों डॉक्टर साहिबा से पैसा लें ,उनका वैसे भी बहुत कर्ज़ है हमारे ऊपर ,जिसे हम ज़िंदगी भर नहीं उतार पाएंगे।
अगले दिन जब सुनीता रामू के घर आई तो रामू भी घर पर ही था ,सुनीता ने जब अपने पर्स से पैसे निकले तो रामू ने हाथ जोड़ कर निवेदन किया ,
“नहीं डॉक्टर साहिबा नहीं ,आपके बहुत एहसान हैं हम पर ,अब और न डालिए ,मैं जीवन भर के लिए वैसे भी आपका ऋणी हूँ”।
“ले लो रामू ये मेरा फर्ज़ है ,ये तो कुछ भी नहीं ,बहुत कर्ज़ तुम्हारा भी मुझ पर है” ।
रामू कुछ समझ नहीं पाया । “हम गरीब लोग आपको क्या कर्ज़ दे सकते हैं साहब”,
“तुम नहीं समझोगे ... तुम रख लो मेरा कहा मानो” ....रामू ने रुपये रख लिए और अबूझ सा स्तब्ध सुनीता को देखता रहा ,उसकी आंखो से पानी बह रहा था , उसे रोता हुआ देख सुनीता की आँखों में भी पानी आ गया ,
सुनीता ने रामू को कमरे में लगी तस्वीर को दिखाते हुये कहा ,
“जानते हो रामू मेरे कमरे में भी यही तस्वीर लगी है ...
यही मेरे भी दादा हैं ,
मेरे पिता का नाम भी राम सेवक गुप्ता था ,
अब दुनियाँ में नहीं हैं लेकिन मेरा पास बहुत कुछ है जिसके असली हकदार तुम हो रामू”
रामू को सब कुछ समझ में आ गया ,वह जानता था कि उसके पिता ने कानपुर जा कर दूसरी महिला से शादी कर ली और सामाजिक भय से कभी गाँव नहीं आए ,
“तो क्या तुम?”......
“हाँ! रामू हाँ! मैं तुम्हारी बहन हूँ ...छोटी बहन” ...
सुनीता ने रोते हुये रामू से कहा,
“मैं अपने पिता से विरासत में मिला सब कुछ तुम्हें लौटना चाहती थी, इसीलिए इस गाँव में आई ,और ईश्वर ने सबसे पहले तुमसे ही मिलाया” ......
“तुम्हारे दुखों का समय अब खत्म हुआ, रामू! तुम अब बड़ी सम्पदा के मालिक हो ,
तुम्हारे पिताजी तुम्हारे लिए इतना छोड़ कर गए हैं जिससे तुम पूरा जीवन आराम से गुज़ार सकते हो” , दोनों बच्चों को सुनीता ने गोदी
में लेकर बहुत पुचकारा ,
इतने वर्षों बाद अपनों का प्रेम पाकर रामू की आँखों से खुशियाँ फूट कर बह रही थी।
सुनीता ने आँखें बंद की और अपने पिता को संबोधित करते हुये कहा,
“देखा पिताजी मैंने अपना फर्ज़ पूरा किया, कर्ज़ तो जितना भी चुकता करूंगी अधूरा ही रहेगा”


अनिल कुमार सिंह
सी 3 आकाशवाणी कॉलोनी
बेगमगंज गढ़ैया
फ़ैज़ाबाद 224001
9336610789

तुझे नेता बनना .........

मचा बवाल ,
कुछ कर कमाल,
ज़ोर शोर से झूठ बोल,
सिलवा ले खद्दर का खोल
तुझे नेता बनना........
बेजह नाच
कर भीड़ बढ़ा
भले आँगन टेढ़ा ,
दो चार मरें
या दबे कुचले ,
क्या बिगड़े तेरा ,
बस घड़ियाली आँसू को बहा ,
तुझे नेता बनना .......
जेल बेल
सत्ता के खेल
इनसे नहीं डरना ,
गर मिले मुफ्त में
गाली भी
तो ले लेना ,
रख स्याही ,
थप्पड़ की भी आस ,
तुझे नेता बनना .........
अनिल कुमार सिंह

"खुशियों की तलाश करें"






मरीचिकाओं में
तरसती प्यास ,
आंसुओं की बूंद से
बुझती नहीं है ,
दर्द के सायों को
बदन पर लपेटे,
चलो आज
खुशियों की तलाश करें...

सर्द कोहरे ने
अपने साये में
छिपायी जरूर होगी
गुनगुनी धूप,
ठिठुरते हुये ही सही ,
चलो आज
उस धूप की तलाश करें ...

दरकते छत की
दरारों में श्वांस लेते
मकड़ी जैसे
कितने जीवन,
निराशाओं के ढेर में
चलो आज
आशाओं की तलाश करें ,
चलो आज
खुशियों की तलाश करें...


अनिल कुमार सिंह

माटी के दीपक

छलकते जाम से कतरा बचा कर
छटपटाती प्यास को प्याले दे दो,
मस्तियों की थालियों के शेष से,
भूख से बिलखते को निवाले दे दो,
खामोश आशियानों से ये कह दो ,
चहकते छप्परों को ताले दे दो ,
जगमगाती रोशनियों से चुरा कर ,
माटी के दीपक को उजाले दे दो ,
जो कहते गरीबी को मानसिक अवस्था ,
उनके पीठ और पैर में छाले दे दो ...........
दे दो दुनिया को ये खबर .....हाँ ये खबर, मेरे हवाले दे दो .......
अनिल कुमार सिंह

हम इतने सहिष्णु भी नहीं

हे ज्ञानी कवि !
इतना सूक्ष्म भी न लिखो
कि हवा हो जाए,
इतना स्थूल भी न लिखो
कि दिमाग की परतों
की बारीक सलवटों में
घुसने भी न पाये ,
तुम्हारा लिखा
तुम ही न समझ पाओ,
ऐसा ज़ुल्म भी न करो ,
हे ज्ञानी कवि !
कुछ दया करो ,
हमारे अल्प ज्ञान पर ......
..........................
..........................
हम इतने सहिष्णु भी नहीं ................

अनिल कुमार सिंह

Saturday 5 December 2015

मुहब्बत का हिसाब

बेहिसाब का हिसाब करते हाे,,
खुद को मुहब्बत की किताब कहते हाे,
मेरी मुहब्बत तो बेहिसाब दाैलत है,
क्यों हिसाब पर हिसाब करते हाे.....
अनिल

असहिष्णुता

उसको बारम्बार नमस्कार ,
जिसने किया
असहिष्णुता का अविष्कार,
हे चतुर साधक ,
तुम्ही हो असली हकदार,
काश!
तुम्हें ही मिल जाते ,
लौटाए गए पुरस्कार............


 नोट: मेरा सहिष्णुता नापने वाला मीटर खो गया ..... लगता है आजकल संसद में है ..... बड़े चोर हैं भाई ...


अनिल कुमार सिंह

विवशता

पीठ के छालों ने पूंछा करवटों का पता ,
वो चूल्हे की ओर इशारा कर के रो दिया ,
गोदाम को अनाजों से भर आया था लेकिन ,
बच्चों का पेट भर के खुद भूखा सो गया।
अनिल कुमार सिंह

मेरी यादों को सीलन से बचाते रहना


नई दुनियाँ , नई यादों का समुंदर होगा ,
चाँद के पहरे में सितारों का मंज़र होगा ,
नम रातों में नम मुलाक़ातें होंगी ,
महकी फिज़ाओं में बहकी हुयी बातें होंगी ,
मेरी यादों को सीलन से बचाते रहना,
तुम इन्हें धूप ओ' छाँव दिखाते रहना.........

वरना सर्द मौसम में कोहरे की परत जम जाती है ........

अनिल कुमार सिंह
art by self

Monday 26 October 2015

इस दशहरे........

एक दिन होगा तूँ निर्बल,
मस्तिष्क में होगा नहीं छल,
स्नायु तंत्र क्षीण होगा ,
दृष्टि श्रवण से हीन होगा
चल- फिर नहीं तूँ पाएगा,
अपनों को आँखों से अपनी,
पहचान नहीं तूँ पाएगा,
हाँ,उस दिन तेरी जुबां पर ,
राम नाम ही आएगा ........

हो सके तो खत्म कर दे ,
अभिमान रूपी रावण को ,
सत्य रूपी राम से ........
इस दशहरे........
अनिल कुमार सिंह

ज़िंदगी मैं तुझे बस! इतना ही समझ पाता हूँ.......(II)

.................शेष.....
झूठ के कदमों में पल पल
सत्य मरता कसमें खा कर ,
सत्य को बरबस सुलाते ,
भ्रष्ट कोलाहल सुनाकर ,
झूठ के इन बाज़ारों में
सत्य सा छिप जाता हूँ ,
ज़िंदगी मैं तुझे
बस !इतना ही समझ पाता हूँ .......

ध्येय की ऊंची इमारत
उठती है मुझ को गिरा कर ,
स्वप्न देता हौसले फिर
ज़ख़्मों को सहला सहला कर ,
ध्येय धड़कन के संघर्ष में ,
जीते जी मरा जाता हूँ
ज़िंदगी मैं तुझे
बस! इतना ही समझ पाता हूँ.......
अनिल कुमार सिंह
,

Sunday 11 October 2015

ज़िंदगी मैं तुझे बस ! इतना समझ पाता हूँ

नींद के सपनों मे क्या था
सोचता रह जाता हूँ,
सुबह से शाम तक अनथक,
खोजता रह जाता हूँ ,
रात खाली हाथ लेकर ,
फिर नींद में खो जाता हूँ ,
ज़िंदगी मैं तुझे
बस ! इतना समझ पाता हूँ ।


चैन के सब रास्तों पर
दर्द भीख मांगता है ,
फेर लें नज़रें कहाँ तक
वो हमसे रिश्ता जानता है,
दर्द के साये में हरदम,
दर्द सा, हो जाता हूँ ,
ज़िंदगी मैं तुझे
बस ! इतना ही समझ पाता हूँ ।

अनिल कुमार सिंह

दगाबाज मौसम सियासी हो गया

छल गया बार बार
दाल गेहूं चावल को ,
दगाबाज मौसम सियासी हो गया ...
खेती गृहस्थी छोड़
चलावै है रिक्शा ,
गाँव का निरहुवा नगरवासी हो गया ...

बिजली पिशाचिन भई
झलक दिखलाए जाए ,
जलकल बिन जल के उदासी हो गया ...
खेत में फटी बिवाई
दंड भई जुताई बुवाई ,
मूल पचास बियाज़ पचासी हो गया .....
अनिल कुमार सिंह

फिर पाँच साल बाद आओगे न

ओह!
फिर आ गए,
पाँच साल पहले भी तो तुम आए थे,
मेरी ज़िंदगी को बदलने का
झांसा लेकर......
देख लो ,
ये आज भी वैसी ही है,
हाँ ,तुम जरूर बदल गए,
इन पाँच सालों में ,

देख लों,
तकिये पर तुम्हारे
पिछले झंडे का खोल,
रस्तों के गड्ढे और
उदास बिजली के पोल ,
आज फिर से दोहरा दो
वही मीठे मीठे बोल
और हाँ,
ये भी बताते जाओ,
फिर पाँच साल बाद आओगे न ,
इस बस्ती में तुम्हारे आने से ,
कुछ पल चेहरों के कमल खिलते हैं ........
अनिल कुमार सिंह

रेत की लहरों पर

रेत की लहरें खामोशी से
अब भी सुना करती हैं वही गीत
जो कभी अमावस की रात को
तुम्हारे चेहरे की चाँदनी से लिपटकर
नम हवाओं ने गाये थे .......
कितने बरस गुज़र गए
वो चाँदनी अब वहाँ रोशन नहीं होती ,
मैं अब भी चला जाता हूँ उन रेत की लहरों पर ,
जहां तुम्हारी चन्दन सी खुशबू लिए
हवाएँ वही गीत लिखती हैं ....रेत की लहरों पर...........
------------------------------------------
सौ बार जनम लेंगे ------------------

अनिल

Saturday 26 September 2015

मिलने को खारे समुंदर को
भटकती विव्हल नदियाँ
मीठे पानी को लिए ,
इस छोर से उस छोर तक ,
कवच ध्वंस को सिर पटकती
सागर मध्य तृषित सीपी , गर्भ में मोती लिए
इस खोह से उस खोह तक ,

मौत की मंज़िल सुनिश्चित ,
भटकती है नर पिपासा ,
जीवन अमृत को लिए ,
इस मोड़ से उस मोड़ तक ,
तृप्तता को लिए ,
असंतृप्त है ,
अभिशप्त है ,
मृग ये सारे ,
भटकते हैं ,
भागते हैं ,
कस्तूरी अपनी लिए ,
ज़िंदगी के छोर तक ........
अनिल कुमार सिंह

Saturday 19 September 2015

मुहब्बत रूठने की हद पे ,मान जाती है
एक बार चले आओ कि, जान जाती है ।
यूं ही नहीं लेती धड़कने, नाम तेरा ,
दिल के सुकूँ को पहचान जाती हैं .........
अनिल

Sunday 13 September 2015

ऐ ज़िंदगी तूँ मुस्करा

कभी तो हंस के नज़र मिला ,
ऐ ज़िंदगी तूँ मुस्करा ,
ये मुश्किलें परेशानियाँ ,
सब तेरी मेहरबानियाँ ,
नहीं फिर भी तुझसे कोई गिला ,
कभी तो हंस के नज़र मिला ।
ऐ ज़िंदगी तूँ मुस्करा....

कभी ठोकरों ने गिरा दिया ,
तेरी बाजुओं ने उठा लिया ,
मुझे जो मिला तुझसे मिला,
कभी तो हंस के नज़र मिला ,
ऐ ज़िंदगी तूँ मुस्करा ....
तेरे जख्म बनें मेरी दवा ,
तेरे दर्द भी बन कर दुआ ,
मेरे साथ थे , मुझे गले लगा  ,
कभी तो हंस के नज़र मिला ,
ऐ ज़िंदगी तूँ मुस्करा ....
अनिल

Friday 28 August 2015

गर दे तो जख्म दे कि मेरे हौसले बढ़ें

ऐ जमाने तूँ मुझे हौसले न दे ,
गर दे तो जख्म दे कि मेरे हौसले बढ़ें,
दूर ही सही मंज़िलों के वो निशां ,
मुझसे नज़र मिलें तो खुद मजिलें चलें ।
अनिल

Wednesday 26 August 2015

प्यार एक लम्हा नहीं बिताने को

अपने आगोश में चाँदनी को लेकर ,
थरथरा कर क्यों पिघलता है बादल ,
आवारगी इस नेह के काबिल नहीं है ,
एक क्षण के प्यार में होता है घायल.....
प्यार एक लम्हा नहीं बिताने को ,
एक उम्र बीत जाती है निभाने को........

अनिल

Monday 24 August 2015

देखता हूँ ज़िंदगी को

हथेलियों के कागजों पर
नित रोज़ नव रेखा बनाती ,
देखता हूँ ज़िंदगी को ,
ठोकरों में गुनगुनाती।
कार के शीशे पे ठक ठक
जब कभी आवाज आती
हाथ में पोंछा लिए
फटेहाल फिर भी मुस्कराती ,
देखता हूँ ज़िंदगी को ,
ठोकरों में गुनगुनाती।
ट्रेन की खिड़कियों में ,
दिख जाती है वो अक्सर ,
रंगों से खुद को सजाकर ,
कुछ खिलौने टनटनाती,
देखता हूँ ज़िंदगी को ,
ठोकरों में गुनगुनाती।
हाथ ले लोहे का सरिया ,
कांधे पर प्लास्टिक की बोरिया ,
पौ फटते ही निकल पड़ती है ,
शहर को अपने संवारती ,
देखता हूँ ज़िंदगी को ,
ठोकरों में गुनगुनाती।
अनिल कुमार सिंह

Sunday 23 August 2015

"ज़िंदगी के दर्द "

"ज़िंदगी के दर्द "
ज़िंदगी के सुनहरे रंग बहुत आकर्षित करते है , सब अपने -अपने दामन में अपने- अपने सपने लिए चलते हैं और सपने भी नित रोज़ नया रंग ले लेते है,ज़िंदगी की ऊंचाइयों में जितना हर्ष है ,उतना ही विषाद उसकी गहराइयों में है ,अनंत सीमाओं में अनंत हर्ष और अनंत विषाद । पीड़ा देखी नहीं जाती, कई प्रश्नो के साथ चिंता की लकीरों को गहरी करती जाती हैं ।
बात कुछ समय पहले की है ,मैं और मेरे दोस्त आनंद ,मेरी पत्नी अंजू को परीक्षा दिलवाने लखनऊ गए थे ,पत्नी को परीक्षा केंद्र पर पंहुचने के बाद हमें समय बिताना था और कुछ भूख भी लग रही थी ,आनंद ने कहा चलिये आपको आज शर्मा की कचोड़ी खिलाता हूँ ,खाई नहीं होगी आपने कभी ऐसी कचोड़ी ... मैंने हामी भर ली और चल दिये तेली बाग से आगे ....
साधारण से दुकान पर सुबह सुबह बहुत भीड़ उसकी प्रसिद्धि को दर्शा रही थी ,दुर्भाग्य से कचोड़ी खत्म हो चुकी थी उसने कुछ देर ठहरने को कहा ,आनंद तब तक एक दोने में जलेबी ले आए ,बाकी भी लोग जलेबी पर टूट पड़े थे ,बाहर दो बड़े बड़े डस्ट्बिन रखे थे ,मेरी नज़र डस्ट्बिन के पास खड़े एक लगभग 13-14 वर्षीय बालक पर पड़ी जो डस्ट्बिन से कचरा निकाल कर एक बड़े प्लास्टिक के बोरे में डाल रहा था और कभी कभी दोनों को चाट भी रहा था , यदि किसी दोने में कुछ खाने का जूठा रहता तो तो वह लँगड़े पाँव से दौड़ते हुये एक नन्हें बालक को ले जाकर देता था जो थोड़ी दूर एक मुंडेर पर बहुत सुस्त भाव से बैठा था ,उसकी उम्र लगभग आठ साल रही होगी,उसके पास भी एक बोरा था जो खाली था ।
बड़े लड़के के पाँव में शायद चोट लगी थी ,इसीलिए वह चलते और दौड़ते समय लंगड़ा रहा था , जब वह फिर से बिन के पास आया तो मैंने उसे बुलाया और 10-10 के दो नोट उसे देकर कहा "तुम दोनों दुकान से जलेबी लेकर खा लो "
वह लड़का दौड़ा दौड़ा छोटे वाले लड़के के पास गया और दूसरे लड़के को एक नोट दे दिया ,मैंने सोचा था कि वे दोनों दुकान पर आएंगे और जलेबी खाएँगे ,किन्तु ऐसा हुआ नहीं ....
दोनों के चेहरे पल भर के लिए खिल गए ,और दोनों अपने अपने बोरों को कंधे पर रख दुकान से विपरीत दिशा में चलते हुये ओझल हो गए ...
आनंद से मैंने आश्चर्य से पूंछा ,ये दोनों जलेबी खाये बिना ही चले गए?
आनंद ने कहा .... शायद उन्हें दिन भर कचरा बीनने से इतने ही रुपए मिलते हों ... वे इसकी कीमत जानते हैं .... घर पर जाकर देंगे तो शायद शाम के चूल्हे में जान आएगी ...
मैं बहुत पछता रहा था ... ऐसा मालूम होता तो कुछ और मदद कर पाता उन दोनों की ... ज़िंदगी की गहराइयों में बहुत दर्द है ...
परीक्षा का समय समाप्त होने पर, हम अपनी गाड़ी से वापस फ़ैज़ाबाद के रास्ते पर एक आइस क्रीम पार्लर पर रुके , मेरा मन बहुत दुखी था .... मैने आनंद से कहा आइस क्रीम मेरे लिए मेट लाना ......
अनिल कुमार सिंह

Saturday 15 August 2015

आज़ादी का जश्न मुबारक

आज़ादी का जश्न मुबारक
ये मत भूलो रखो ध्यान
आज के दिन ही भारत माँ की
कोख से निकला पाकिस्तान ,
जलते घर और अगनित लाशें
मानवता हुयी लहूलुहान
माँ की कोख से
बड़े दर्द से
आज था निकला पाकिस्तान ...
एक तरफ लाल किले पर
शोर पटाखे ,लाउडस्पीकर
एक तरफ बेघर बाशिंदे
खोजते अपनों को रो रो कर ...
तन के वसन साथ थे केवल
बिछुड़ गए खेत खलिहान
माँ की कोख से
बड़े दर्द से
आज था निकला पाकिस्तान ...
आज़ादी का जश्न मुबारक
अनिल

Thursday 13 August 2015

रात भर रोया है सावन

रात भर रोया है सावन
पल भर नहीं सोया है सावन
बज रहे बूंदों के घुँघरू
अब नहीं बजती है पायल ....
पूंछती गिर गिर के बूंदें
क्यों है सूना सूना आँगन ...
रात भर रोया है सावन

Wednesday 12 August 2015

गिराओ तुम हमें हम उठेंगे और भी दम से

स्वप्न ओझल हो गए
स्वप्नों के बाज़ार से ,
कौन बुझा बैठा
चिरागों को
दरों दीवार से ,
जूझते हैं हौसले
इन अँधेरों से मगर ,
हारता हर एक मांझी
अपनी ही पतवार से ,
तमस बाहर का
अन्तः ज्वाला को
हरा सकता नहीं,
जो खुद बुझा हो
दूसरा दीपक
जला सकता नहीं ,
गिराओ तुम हमें
हम उठेंगे
और भी दम से,
साधना गर लक्ष्य तो
ये सीख लो हमसे ,
जला कर इन चिरागों को
सजाएँ फिर से सपनों को
लगा कर बोलियाँ उनकी
तलाशें बिछुड़े अपनों को ।

अनिल

Thursday 6 August 2015

अगला धरना

बेबी डॉल वो सोने वाली करती चीख पुकार ,
करती चीख पुकार, वो पहुंची अन्ना के दरबार,
धरनों के सरदार ,अबकी, सुनलों मेरी पुकार ,
कर दी सारी बंद साइटें ,ये कैसी सरकार ,
कुछ करों यत्न ,दूकान बंद ,बंद है कारोबार ,
चंदा चुटकी भारी भरकम, ले लों भीड़ हज़ार ,
तरस खाओ मेरे दीवानों पर, हो जाओ तैयार ,
पाँव पड़ूँ तोरे मोरे अन्ना ,विनती बारंबार ,
अन्ना खड़े हुये खटिया से ,सुन लो मेरी बात ,
मैं बूढ़ा अब मेरे चेले , धरनो के सरदार,
जंतर मंतर उनका अड्डा और दिल्ली की सरकार,
कजरी बोले मैं नहीं ,मैं नहीं नंबर वन युवराज .....................

सुना है युवराज और बेबी डॉल का धरना होने वाला है .... संसद के धरने के बाद ..

Saturday 1 August 2015

तेरी मुहब्बत

सूखे पत्ते भी तेरी खुशबू से थिरक जाते हैं ,
तेरे दीदार को बैठे हैं मिट जाने से पहले ,
तेरे साथ मुहब्बत ने मुड़ कर नहीं देखा ,
ये खुद ही महकते थे तेरे जाने से पहले ।
एक बार चले आओ कि चमन खिल जाए ,
पथराई खामोश नज़रों को नमीं मिल जाए ............

Monday 27 July 2015

एक हैं आधे आधे हम तुम

आधा चाँद और आधी रात,
आधा भीगा भीगा सा मौसम ,
बूंदों के पैरों में घुँघरू ,
आधा रुनझुन आधा छमछम,
आधी आधी खुली खिड़की से,
आधा हवा का झोंका मध्यम  ,
आधा सूखे आधा गीले,
एक हैं आधे आधे हम तुम ........
anil

Saturday 25 July 2015

बचपन

मन करता है
अब भी,
वहीं कहीं पर
मिल जाएगा ,
कुछ बिखरा सा
बिछड़ा
बचपन,
गर ढूढ़ें
तो मिल जाएंगे
रेल की
पटरी किनारे
दस पैसे के
पिचके सिक्के
और टूटी चूड़ी के छल्ले ,
मुझे यकीं है
तब का खोया
बचपन अब भी
वहीं पड़ा है....
रेल की
पटरी किनारे ......
वर्षों पहले बिछुड़ गया जो .....

दुःखद

गिर न जाए वो कहीं जीवन डगर से ,
भागते देखा जिसे अपने ही घर से ,
यह सोच कर ,वो लौट के न आएगी ,
कि गिर चुकी है अब वो दुनियाँ की नज़र से ,
------------
आज के अखबार में ये छपा है
एक पिता ने अपनी पुत्री का वध किया है ......
अनिल

Wednesday 15 July 2015

सीता राम बोले अयोध्या नगरी सारी,
सदियों से व्याकुल है कैसी लाचारी ।
मेला का रेला है कछु दिन क खेला ,
भीड़ घटी गलियन में भूखे भिखारी ,
सीता राम धुन सत्तोंह बजत है ,
मंदिर बहुत और थोड़े पुजारी .........

नंगे पाँव भक्त धरे गठरी कपारी,
सतुआ और भूजा संग सुर्ती सुपारी ,
पुलिस पिशाच लिए हाथे में डंडा ,
खदेड़े हैं सबका नर हो या नारी .......
ज़ोर ज़ोर पुकारें प्रसाद व्यापारी ,
रास्ता रोकें रिक्शा , गइया महतारी ,
धड़ धडाय धुआँ उड़ावत चलत है ,
टंपू हैं ज्यादा और कम है सवारी ......
हनुमत लला से कहें कनक बिहारी ,
व्यर्थ लंक जारि रावण को मारी ,
एक एक पापी आय भोग चढ़ावें ,
मारे के गुंडा बने तोहरे दरबारी...
सीता राम बोले अयोध्या नगरी सारी,
सदियों से व्याकुल है कैसी लाचारी ।
अनिल
टूटते बहुत हैं तुझे याद कर करके ,
हम चाहने वाले हैं तेरे ,रूठते नहीं ।
आज़माने वाले मुहब्बत को मौत से ,
तेरे दिखाये ख्वाब कभी भूलते नहीं ।
इक इक खुशी पे तेरी ,सब झूमते रहे ,
हम मिटते रहे तुझपे ,तुझे फुरसतें नहीं।
यादों के पत्ते पत्ते तेरा नाम ले रहे,
मुरझा चुके हैं फिर भी , कभी टूटते नहीं।
दरिया के किनारों की तक़दीर क्या कहें,
मिलते नहीं कभी भी ,हाथ छूटते नहीं।
अनिल

Thursday 9 July 2015

मैं कवि नहीं ,लेखक नहीं

अन्तर्मन के द्वंद्वो को
सीधे और सरल शब्दों में,
निष्काम भाव से मैं लिखता हूँ
मैं कवि नहीं ,लेखक नहीं ,
लिखने भर को बस लिखता हूँ।
साहित्य व्योम के अगिनित तारे ,
प्रेरित करते हैं ये सारे ,
कोई चमकता ,कोई टूटता ,
कोई समूह बना कर चलता ,
कोई बिखरता जर्रा जर्रा ,
धरती से देखा करता हूँ ....
मैं कवि नहीं ,लेखक नहीं ,
लिखने भर को बस लिखता हूँ।
मेरे अपने मेरे सपने
कुछ छूटे कुछ साथ बचे हैं ,
उड़ सकने को पंख नहीं थे,
फिर भी कुछ अरमान बचे हैं,
अरमानो के इस जुगनू को ,
दिन में भी देखा करता हूँ ,
मैं कवि नहीं ,लेखक नहीं ,
लिखने भर को बस लिखता हूँ।
अनिल

Wednesday 8 July 2015

हाँ वो रोया था बहुत ,
प्यार कम था या था ज्यादा ,
लौट कर आने का वादा ,
कर गया, यह बोल कर ,
दर्द के बाज़ार में ,
पल भर ठहरती हैं ये खुशियाँ ,
आंसुओं के मोल पर...

Saturday 4 July 2015

आ आ कर सताना ही हो, तो आना नहीं ,
जिंदगी हमने ,तुझे ठीक से जाना नहीं ,
जख्म ये तेरे हमें ,बार बार परखते हैं ,
हम हैं कि, तुझे हरदम सीने से लगाये रहते हैं......
अनिल
राख़ होने से पहले कुछ हवा दे दो ,
ज़िंदगी को मुहब्बत की दवा दे दो ,
आईने मुद्दतों से यूं ही उदास बैठे हैं ,
हो सके तो इन्हें अपनी अदा दे दो ।
anil

Saturday 27 June 2015

मुहब्बत


नवकोपलें जिन्हे दुआओं से सींचा था ,
अब उनकी अदाएं आँखों से नहीं जाती ,
यूं ही झूमकर लहराती रहें उम्र भर ,
ये वो फसलें हैं जो कभी ,काटी नहीं जाती ।
- अनिल कुमार सिंह
जोधपुर से वापसी के समय बच्चों ने ट्रेन से विदा करने का जिम्मा उठाया ,एहसास हुआ कि बच्चे अब बड़े हो गए, .........

Saturday 13 June 2015

अपनों की मुहब्बत

मुहब्बत के आईने पर जमी ओस को
निगाहों के नर्म कपड़े से हटा कर देखा ....

कुछ बिखरी संवरी मुहब्बतों के अक्स 
रोती हँसती कुछ कहती  आँखें ,
गले लगाने को बेताब बढ़ी हुयी बाहें ...

नहीं नहीं .... ये वो मुहब्बत नहीं ...
जो टूट कर बिखर चुकी थी कभी  .....
ये वो मुहब्बतें थी
जो  धूमिल भी नहीं होती कभी  ,
ये मुहब्बतें मेरे अपनों की ....
कलाई के धागों और माथे के टीकों की ,
बचपन के खेल और ऊंचे ऊंचे सपनों की ,

हाँ, बेहद मुहब्बत करते हैं मेरे अपने मुझसे ,
काश! वक़्त भी कुछ रहम करता ,
मेरी अपनों  से दूरी कुछ कम करता ...


अनिल कुमार सिंह

Sunday 7 June 2015

विभव और वैभव

विभव ..
चमकती बिजलियों का,
शून्य हो जाता है
धरा के संसर्ग से ,
जमी पर चलने वाला
आसमान में चमकना चाहता है ,
विभव नहीं ,
अहंकार है
अपने वैभव पर
अपनी पहुँच
और ठाठ बाट पर ,
भूल मत कि
श्रेष्ठ राजा भी बिके थे
डोम के घर घाट पर,
कहाँ गया वैभव अकबर का ,
कुबेर और कर्ण का
क्या कहीं शेष है ?
यह सत्य नहीं कि
गगन में होता छेद है ,
दंभ- वश करता
मनुज मनुज में भेद है ,
हाथों की लकीरों को
बदलने का सचमुच
सामर्थ्य है तुझमें ,
तो सुन,
बदल उन हाथों की लकीरों को ,
जो तेरे सामने दीनता -वश फैलते हैं ,
गौर से देख उनकी भी
आँखों में कुछ सपने तैरते है ,
दिखेगा कहाँ से ,जमीं पर चलोगे तब न ........ दरिद्र देव की सेवा हेतु समर्पित॥

अनिल कुमार सिंह

Wednesday 3 June 2015

जमीं की बात

फटे आसमानों को
सिलने का हुनर
सीखें भी तो कैसे ,
बिन पंखों के
उड़ने का सबक
सीखें भी तो कैसे ,
जमीं पर रहते हैं ,
जमीं की लिखते हैं ,
चाँद तारों की बातें
करें भी तो कैसे ????

अनिल

Tuesday 2 June 2015

मुझे मंज़िलों की तलाश है

मुझे मंज़िलों का पता नहीं
मेरे रास्ते मेरे साथ हैं,
तुझे सिर्फ मेरी ही प्यास है,
मुझे मंज़िलों की तलाश है।
तूँ खड़ा जो मेरी राह में ,
मुझे ताकने की चाह में,
तुझे एक नज़र की आश है ,
मुझे मंज़िलों की तलाश है।
मुझे बच के चलने का हुक्म है,
मेरी एक नज़र भी ज़ुल्म है ,
तेरे सौ गुनाह भी माफ हैं,
मुझे मंज़िलों की तलाश है।
तेरी फब्तियाँ तेरी मस्तियाँ ,
खामोश रहती ये बस्तियाँ,
सब जानकर चुपचाप हैं,
मुझे मंज़िलों की तलाश है।
तेरा जुनून तेरी आशिक़ी ,
मेरा जुनून मेरी मंज़िलें ,
मेरी बंदगी मेरे साथ हैं ,
मुझे मंज़िलों की तलाश है।

Sunday 31 May 2015

मंगरू चाचा बाराती



            मंगरू चाचा आज बहुत खुश थे ,सुबह सुबह नाऊ को बुला कर दाढ़ी –बाल बनवा लिए थे, दुवारे वाले आम की दो टहनियों से बंधी  उनकी धुली और नील लगी धोती सूख रही थी , छोटकी पतोह से  कह कर बक्शे  में पड़ा सिल्क का कुर्ता निकलवा कर इस्त्री करवा  लिए थे । आज गाँव के साहू सेठ के लड़के की बारात जाना था , अक्सर लोग उन्हें बुजुर्ग समझ कर बारात जाने का आग्रह नहीं किया करते थे , इस बार साहू सेठ  के इकलौते बेटे की शादी में साहू सेठ ने उन्हें घर पर आ कर विशेष बुलव्वा दिया था । अपने भतीजे नवीन को अपने साथ चलने को मना चुके थे , नवीन के कई हमउम्र दोस्त भी बारात में जा रहे थे , दोपहर का खाने में पतोह से दो करछुल दाल भात लाने को कहे ताकि दिन में पेट हल्का रहे , सेठ की बारात है ,आगे बहुत कुछ खाना पड़ेगा । दिन के चार बजे साइकिल बैंड की आवाज सुनते ही फटाफट अपने धोती बांध ,सिल्क का कुर्ता धारण कर , नया वाला गमछा करीने से कंधे पर डाल लिए और हाथ में कुबरी लेकर नवीन - नवीन पुकारने लगे । नवीन उनकी आवाज सुनकर दौड़ा दौड़ा आया और कहने लगा ,”बड़का बाबू अभी आराम करिए बारात जाने में अभी टाइम है ,हम आपको खुद लेने चले आएंगे” , मंगरू चचा ने फटकार लगाई “ “अरे कुछ देर पहले जाए से का कुच्छ घट जाए ,दुवारे की शोभा होता है बाराती” । ऐसा कह कर तुरंत नवीन को साथ लिए अपने तेज़ कदमों से सेठ के दरवाजे पहुँच गए मंगरू चाचा , उन्हें बड़े आदर के साथ बैठाया गया ,मीठे के साथ जल का सेवन कर मंगरू चाचा चुपचाप बारात चलने  का इंतज़ार करने लगे ।  बारात को जहां जाना था वह मात्र आधे घंटे का रास्ता था । धूप अपनी जगह बदल रही थी तो मंगरू चाचा की कुर्सी भी चिलबिल के पेड़ के नीचे छायानुसार अपनी जगह बदल रही थी , सेठ के घर बारात चलने  से पूर्व की पूजा पाठ चल रही थी । नवीन अपने दोस्तों में मस्त था ,चाचा आराम से बैठ आने जाने वाले लोगों से अभिवादन स्वीकार कर रहे थे । बारात जाने वाली गाड़ियों का आना शुरू हो चुका था , हलचल से बारात रवाना होने का अंदाज़ा होने पर नवीन उनके पास आया और अपने साथ एक बोलेरों की फ्रंट सीट पर अपने बड़के बाबू को बैठा दिया और खुद पीछे बैठ गया , देहाती गानों को आनंद लेते हुये कुछ ही देर में बारात गंतव्य पर पहुँच गई । 
          जनवासे में मंगरू चाचा को एक चारपाई पर बैठाया गया ,एक-एक कर गाडियाँ आती गई और जनवासा भर गया ,मंगरू चाचा की बेचैनी बारात को देख कर बढ़ गई , नवीन को बुला कर पूंछते हैं ,कि बारात में इतनी सारी महिलाएं कौन हैं? नवीन ने बताया कि  महिलाएं सब सेठ जी के घर की हैं , मगरू चाचा के  मन की आशाओं पर जैसे कुठराघात हुआ , बारात में घर की महिलाएं ? इसका मतलब बाहरी महिलाओं का नाच देखने को नहीं मिलेगा... जमाना बदल गया है ,मन ही मन बातें करते चाचा बार बार अपनी  मूंछों को ताव दिये जा रहे थे, अपने गमछा भी बार बार दुरुस्त कर रहे थे । जनवासे में आई मिठाई को उन्होने नवीन को दे दिया  , गौर से सभी बरातियों को देख कर पहचानने कि कोशिश करते ,किसी को बुला कर उसका और उसके परिवार का हालचाल लेते ,कभी शामियाने को और उसकी सजावट को गौर से निहारते ,खर्चे का अंदाज़ा लगाते और अपनी चुनौटी  से सुर्ती बना उसका रसास्वादन करने लगते । 
                 स्वागत सत्कार के बाद डी जे अपनी कान फाड़ू आवाज और चमचमाती लाइटों के साथ बारात रवानगी के लिए तैयार था।  सेठ जी के आग्रह पर सब अपनी अपनी चारपाई  छोड़ कर अपने अपने कपड़े संभालते बारात के लिए डी जे के पीछे जा खड़े हुये।  दूल्हे की कार बरातियों के सबसे पीछे थी।   मंगरू चाचा भी अपनी कुबरी लिए धोती गमछा संभालते बरातियों के साथ थे। डी जे बजना शुरू हो गया , द्वीअर्थी भोजपुरी गानो के साथ साथ ठुमकों  का दौर ज़ोर पकड़ने लगा , सभी पर धमाकेदार संगीत का असर दिख रहा था ,तरह तरह के डांस देख मंगरू चाचा के आँखों की चमक बढ़ गई, जोश का संचरण होने लगा , नवीन को अपनी कुबरी पकड़ा कर ,गमछे को कमर से टाइट बांध कर मैदान में कूद पड़े ,उन्हे देखने वालों की भीड़ चारों तरफ टूट पड़ी , वीडियो कैमरा वाला डी जे की गाड़ी पर लगे स्पीकर पर चढ़ कर मंगरू चाचा के जबर्दस्त नाच का वीडियो बना रहा था ,तभी एक महिला ने आकर मगरू चाचा का हाथ , साथ में  नाचने के लिए पकड़ लिया  इतने गरम माहौल में इतने वर्षों के बाद महिला का  स्पर्श  मंगरू चाचा के लिए 440 वोल्ट के झटके से कम नहीं था , हाथ पाव सुन्न पड़  गए जैसे साँप सूंघ गया हो ,जोश ठंडा हो गया और झटके से हाथ छुड़ाते ही माहौल में ठहाका गूंज गया । तुरंत नवीन से अपनी कुबरी ले अलग खड़े हो गए ,सभी के बहुत आग्रह पर भी टस्स से मस्स नहीं हुये , किन्तु बारात का मंच कहाँ खाली रहता है , नृत्य ,नर्तक ,संगीत सब कुछ बदलता रहता है और मंच सबके साथ - साथ चलता रहता है । एक महिला के मैदान में आते ही महिलाओं की संख्या प्रबल हो गई , मंगरू चाचा के लिए यह अनोखा अवसर था ,वे आँख फाड़े महिलाओं के डांस को देख रहे थे ,बार-बार नवीन से किरदारों की जानकारी भी ले लेते और कहते , “भला घरे क महरारून क बारात में नाच ,ई कौन सभ्यता है ” ,पर नज़रें लगातार उसी चलते फिरते मंच पर टिकी हुयी थीं। बारात के दरवाजे पर पहुँचने पर मंगरू चाचा ने मुह में भरी सुर्ती को थूक दिया और साहू सेठ के साथ सम्मानजनक तरीके से द्वार-पूजा पर आसन लगा बैठ गए, वहाँ पर उन्होने नेग चार और जलपान ग्रहण किया ,पूजा के समाप्त होने पर बड़ी मुश्किल से हाथों के सहारे खड़े हुये ,  नाचने की वजह स पैरों में जकड़न थी ,पीछे मुड़ कर देखा तो उनका एक पैर का  जूता ही गायब था , झाल , बंसवारी सब  जगह ढूंढा गया पर जाने कहाँ चला गया ,बेचारे मंगरू चाचा नंगे पाँव हो गए । बड़े ज़ोर की भूख लगी थी सुबह से यही सोचकर कि बारात में व्यंजनों का स्वाद लिया जाएगा ,मगरू चाचा ने घर पर भी ज्यादा नहीं खाया था , वे उस तरफ चल पड़े जहां खाने का इंतजाम था ,पर यह क्या ,उन्होने यह सोचा ही नहीं था कि खाना सबको अपने हाथ से लेना है , कोई परोस कर खिलाने वाला नहीं था, सब अपने अपने हाथों को उसी बर्तन में डालकर खाना निकाल रहे थे ,नवीन को उनहों कहा “हम ई गिद्ध भोज नहीं करेंगे ,कौनों दूसर इंतजाम नहीं है का” , नवीन ने नज़र दौड़ाई पर कोई इंतज़ाम नहीं दिखा ,फल वाले काउंटर से नवीन दो केले ले आया जिसे खा कर मंगरू चाचा जयमाल के लिए सुसज्जित मंच के सामने लगी प्रथम पंक्ति की कुर्सी पर बैठ गए ।  अन्य लोगों ने उन्हे जनवासे में आराम करने की सलाह दी, पर मंगरू चाचा कहाँ मानने वाले थे ,कहने लगे “बारात में आए है दूल्हा-दुल्हन को आशीर्वाद देने कि आराम करने” ।                  आखिर आशीर्वाद देते-देते रात के 12 बज गए , अब सोचा कि जनवासे में जा कर आराम करें ,नवीन का पता नहीं था ,शायद वह सो गया होगा ,जनवासे में पहुँचने पर सारी चारपाई फुल थी ,जनरेटर बंद हो गया था ,अंधेरे में किसी को पहचानना भी मुश्किल  हो रहा था , कोई पूंछने वाला भी नहीं था , चाचा नंगे पाँव वापस विवाह स्थल की ओर रवाना हो गए। मन में विचार आया कि, अब ज्यादा अच्छे से आशीर्वाद देने का मौका मिलेगा ,रात भर शादी देखने के अलावा कोई दूसरा उपाय भी नहीं था ,पैरों में ज़ोरों का दर्द था ,आँखें नींद के बोझ से बोझिल थीं , हरे थके मंगरू चाचा आखिर मंडप तक पहुँच ही गए ।  पाणिग्रहण की रस्में शुरू हो गई थी , मंडप के चारों तरफ बिछे गद्दों पर घराती और  बराती घर वाले ही मौजूद थे ।  साहू सेठ ने बड़े आदर से मंगरू चाचा को अपने पास गद्दे पर बैठने का इशारा किया ,चाचा कराहते हुये गद्दे पर बैठ गए, दूर ओसारे में बैठी महिलाएं बरातियों को प्यार के  रस से सराबोर गालियाँ सुना रही थीं ,मंगरू चाचा का ध्यान शादी में कम ,गालियां सुनने में ज्यादा था ,बहुत दिनों  के बाद उनके जीवन में यह अवसर आया था ,कभी - कभी कोई बात मन को गुदगुदाती तो अपने पिचके हुये मुंह  पर हल्की सी मुस्कान से बातों को समझने का संकेत दे देते ,पर कितनी देर तक उनका हौसला साथ देता ,बहुत थक गए थे ,उस पर पूरे दिन में दो केले से कितनी ऊर्जा मिल जाती ,रात 8 बजे सोने बाले का संयम रात 1 बजे जवाब दे गया , धीरे से खाली पड़े गद्दे पर अपने गमछे का तकिया बना कर कुबरी को बगल में रख लेट  गए , चलो जगह मिल गई सोने की , ईश्वर को धन्यवाद देकर गहरी नींद में उतर गए। जब सो रहे थे तो मंडप के पास आए कुत्ते को दौड़ने के लिए किसी ने उनकी कुबरी का दुरुपयोग कर लिया ,जबर्दस्त ज़ोर लगा कर फेंके जाने से बेचारी वह भी टूट गई ,देखते - देखते भोर हो गई थी उन्हें उठाया गया , उठने में बड़ी दिक्कत हो रही थी ,भला इस उम्र में नाचने के बाद जोड़ों का तो यह हाल होना ही था ,फिर भी उठे तो देखा की विदाई की तैयारी हो रही थी ,नवीन को अपने पास देख उसे बहुत भला बुरा कहा ,रात की दुर्दशा की कहानी बताई , कुबरी की तरफ निगाह पड़ी तो वह भी गायब ,नवीन टूटे हिस्से दिखा कर बोला यह तो टूट गई बड़के बाबू”, जब हम ही टूट गए तो कुबरी का क्या दोष , मंगरू  चाचा ने दबी हुयी आवाज़ में कहा । सुबह की नित्य क्रिया नंगे पाँव ,बिना कुबरी के ,पैरों की असहनीय पीड़ा के साथ मंगरू चाचा को करनी पड़ी ,सुबह का नास्ता  बैठा कर करवाया गया , तब जा कर कहीं भूखे पेट में अन्न गया , खैर विवाह सम्पन्न होने के बाद बरातियों को घर पहुँचने की जल्दी होती ही है , मंगरू चाचा जिस बोलेरों में आए थे उसी में बैठ वापस गाँव आए ,उनकी बिगड़ी हालत देखकर ड्राईवर ने उन्हें घर तक पहुंचाया ,मंगरू चाचा के मन में बदले सामाजिक परिवेश में हमारे रीति रिवाजो में हुये परिवर्तन को लेकर अंतर्द्वंद्व चल रहा था ,तीन दिन वाली बारात में थकान उतारने का भी वक़्त मिलता था ,सभी रीति रिवाज कायदे से होते थे ,नाच गाने का तरीका भी अलग था ,इस भागमभाग वाली बारात से तो अच्छा है दुल्हन को सिर्फ दूल्हा जा कर ले आए ... समय  तेज़ी से बदल रहा है ... हो सकता है भविष्य में ऐसा ही हो ... पर जो भी हो अब हम बारात कभी नहीं जाएंगे , मंगरू चाचा ने ऐसा दृढ़ निश्चय किया।

Thursday 28 May 2015

प्रेम पथिक चल जरा संभल

हे प्रेम पथिक चल जरा संभल
तेरी राह में हैं हर पल नव छल
स्वार्थ  लोभ से छिद्र छिद्र है
व्याकुल प्रेम पटल कोमल ....

जाति धर्म  और ऊंच नीच सब
आँधी पतझड़ ज्वालामुखी से ,
वेग ताप और दाब असहनीय
कोमल किसलय जाते हैं जल
हे प्रेम पथिक चल जरा संभल ....

बातों का भ्रमजाल मनोहर
संग जीने मरने की कसमें
प्रेम तन्तु से अधर लटकते 
नीचे आग उगलते दलदल
हे प्रेम पथिक चल जरा संभल ....

व्यर्थ नहीं ये प्रेम शब्द पर
चौकस रहना इसके पथ पर 
जीवन अमृत का यह सागर
नव कोपल सा नाज़ुक निर्मल
हे प्रेम पथिक चल जरा संभल
तेरी राह में हैं हर पल नव छल ....

अनिल कुमार सिंह

Thursday 21 May 2015

लाचारी में गला रुँध जाता है

ऊंची ऊंची
अट्टालिकाओं की
जगमगाती रोशनी को
कच्चे घर के ओसारे से ,
खामोश निराश
नज़रों से
झाँकता है ,
अपने घटते हुये
तेल से चिंतित
हाँफता है ...
एक दीपक ,
आँख में नमी लिए हुये...
जलता रहता है ...
पेट्रोल पम्प पर
हॉर्न बजाती
बड़ी बड़ी गाड़ियों को
चुपचाप खड़ा
देखता है ,
राशन की दुकान
पर लाइन में लगा
मिट्टी के तेल का
खाली जरीकेन
खामोशी से
अपनी बारी का
इंतज़ार करता है ,
आँखों में नमी लिए हुये.....
खड़ा रहता है ....
सचमुच
लाचारी में
गला रुँध जाता है दोस्तों ...
लाचारी चिल्लाती नहीं है ,
जहां चिल्लाहट है ,
वहाँ लाचारी नहीं है .....
नम आँखों से तो दिखाई भी कम देता ...

Saturday 16 May 2015

हाथ जोड़ कर वह आता है…

जर्जर छप्पर की चौखट  में
 शीश झुका कर हाथ जोड़ कर
 एक मौसम में वह आता है
मुझको मेरे दर्द दिखा कर
टूटी बंस -खटिया पर बैठ कर
स्वप्निल दुनियां में ले जाता है,

खाली  पेट ,फटे वस्त्रों में
झुर्री वाले जवां चेहरों में
दाने को मोहताज़ घरों में
बस दिखता उसको मतदाता है ,
हाथ जोड़ कर एक मौसम में वह आता है…

भूखे  को रोटी दिखला कर  ,
प्यासों को दो बूँद दिखाकर ,
फटी जेब में हरे नोट रख ,
झूठी आस धरा जाता है ,
हाथ  जोड़ कर एक मौसम में वह आता है,


बारिश में नहीं घर टपकेगा ,
चूल्हा दोनों वक़्त जलेगा,
सरिया में अब बैल बंधेंगे ,
ढाँढ़स एक  बंधा जाता है
हाथ जोड़ कर एक मौसम में वह आता है.......

चूल्हा क्या ढिबरी नहीं जलती,
समय पर मज़दूरी नहीं मिलती ,
माँ के इलाज़ में खेत बिक गए ,
उस पर, हर मौसम तड़फाता है ,
पांच साल तक नज़र नहीं  आता,
जाने कहाँ चला जाता है……
हाथ जोड़ कर एक मौसम में जो आता है ……






Tuesday 12 May 2015

मक्के के खेत और विदेशी मेहमान



मक्के  के खेत और  विदेशी मेहमान '

पहाड़ों के हालात इन्सानों को मेहनती और साहसी बना देते हैं , जीवन चक्र के लिए जरूरी खेती भी इतनी आसान नहीं ,दुर्गम पहाड़ियों में ऊंची-ऊंची मेड़ों के सहारे सीढ़ीनुमा खेतों में प्राकृतिक जलस्त्रोतों से पानी की राह लहलहाते मोहक खेतों का पोषण करती है , प्रकृति का नज़ारा देखते ही बनता है।  इस बार मक्के की फसल अच्छी है ,जानवरों ने भी नुकसान नहीं किया है , अकरम और रेशमा अपने सीढ़ीनुमा खेतों पर बतियाते चले जा रहे थे , तभी दोनों के पैर ठिठक गए ,ये क्या ? बड़ी दूर में मक्के के पौधे  धराशायी हो गए थे , जैसे किसी ने जानबूझ कर कुचला हो ,”हाय अल्लाह ! ये कैसे हुआ?”  रेशमा ने अफसोस भरी ज़ुबान में कहा , चलो कोई बात नहीं मैं इन्हें काट लेता हूँ कम से कम जानवरों को हरा चारा  मिल जाएगा ,ऐसा कह कर अकरम हंसिये  से गिर चुके  पौधों को काटने लगा , काटते काटते खेत में खून के निशान देख चौंक पड़ा , रेशमा! रेशमा! इधर आओ ,इधर आओ , ज़ोर से चिल्लाया , रेशमा ने अपने बारीक नज़रों से खून के निशानो का कुछ दूर तक पीछा  किया , थोड़ी  ही दूर पर उसे एक मफलर , कुछ खत्म सिगरेट के फ़िल्टर  और अखरोट के छिलके और बुलेट के खाली खोखे नज़र आए ,दोनों को माजरा समझते देर नहीं लगी, “हरामजादों को हमारा ही खेत मिला था” रेशमा ने गुस्से से रुँधे स्वर से कहा, मक्के और दहशतगर्दों का पुराना नाता है , एक खेत से दूसरे खेत को पार करते करते बहुत दूर निकल जाते हैं ,ऊंचे ऊंचे मक्के के खेत उनके छिपने का माकूल ठिकाना होते हैं । देखते देखते शाम हो गई ,अकरम  ने कटे हुये बोझ को सिर पर रखा और दोनों वापस घर की ओर चल दिये । दहशतगर्दों के दस्ते गुज़रने शुरू हो गए हैं ,तभी तो कल रात से शेरा पोस्ट से फ़ाइरिंग की आवाज़ें आ रही थी ,जीना मुश्किल कर दिया है ,इन कुत्तों  ने .... बातें करते करते दोनों अपने घर पहुँच गए ,अकरम ने सिर से मक्के  का बोझ उतारा उसे गंड़ासे से चारा बनाने के लिए काटने कागा , मन ही मन गुस्से से हाथ तेज़ तेज़ पर बेतरतीब चल रहे थे , सुबह जो गोलियों की तेज़ आवाज़ें आ रही थी ,तब एंकाउंटर हुआ होगा , मेरे ही खेत में ,न जाने कितने थे, रात इसी गाँव के किसी घर में डेरा डाला होगा ..... तरह तरह के सवाल - जवाब मन में चल रहे थे ,उधर रेशमा बगल के बेतार नाले के पास वाले अखरोट के पेड़ पर खेल रहे बच्चों को बुला लायी ,बच्चे भी बात सुन कर दहशतजदा हो गए ... अंधेरा हो चला था, सबने एक साथ मक्के की रोटी के साथ कड़म का साग खाया ,और बिस्तर पर जाने की तैयारी करने लगे ... तभी अकरम ने रेशमा से कहा “तुम तहखाने में बच्चों को लेकर सो जाओ,मैं यहीं कमरे में सो जाता हूँ । “ तहखाने का रास्ता घर के पीछे से सुरंगनुमा रास्ते से जाता था,अपने बचाव के लिए ज़्यादातर लोगों ने घर में तहखाने बनवाए थे । सब अल्लाह से अच्छे कल की दुआ मांग कर अपने अपने बिस्तर पर चले गए ,ये रातें खौफ वाली होती ही हैं ,भला नींद किसे आती है । रात में एल ओ सी पर गोलियों की आवाज़ें इन परदेशियों के आने की खबर दे रही थी ,बेतार नाले की निरंतर आवाज़  साफ सुनाई दे रही थी। अकरम सो नहीं पा रह था ,जरा सी आहट  पर उठ कर बैठ जाता और दरवाजे के सुराख से बाहर झाँकता , फिर बिस्तर पर पड़  जाता। रात के लगभग डेढ़ बजे थे कुत्तों के भोंकने की आवाज से वह फिर चौंक गया ,उठकर झाँका तो पास वाले नाले के पास जुगनू की तरह जलकर बंद हो जाने वाली रोशनी दिखाई दे रही थी ,जरूर कुछ लोग गाँव की तरफ ही आ रहे थे, रोशनी जैसे जैसे नजदीक आ रही थी , अकरम का शरीर पसीने से तर बतर हो रहा था ,पर वह तैयार था, वह कोई पहली बार यह सब नहीं देख रहा था , पदचापों की आवाज़ तो उसी के घर की ओर बढ़ रही थी  ,उसने आंखे बंद की और अल्लाह से सलामती की दुआएं मांगने लगा ,तभी ज़ोर से दरवाजा खटखटाने की आवाज पर वह दरवाजे की ओर बढ़ा और सहम कर दोनों किवाड़ों को खोल कर देखा , दो नौजवान, चेहरे पर हल्की दाढ़ी , हुये कंधे पर भारी भारी बैग टांगे और हाथों में भारी हथियार लिए बड़े अदब के साथ अकरम से “अस्सलाम  अलेकुम”  कहते हुये चौखट पार  कर भीतर बरामदे में पड़े तख्ते पर बैग रख कर बैठ गए,अकरम हाथ जोड़े खड़ा रहा। उनमें से एक जिसे दूसरा टाइगर कह रहा था ,ने कड़े लहजे में पूंछा  और कौन कौन है घर में ? कोई “नहीं साहब मैं अकेला हूँ” डरते हुये अकरम ने जवाब दिया , डारे पर टंगे रेशमा के कपड़ों की ओर इशारा कर के टाइगर  बोला “तेरी जनानी किधर है ”, साहब मेरी सास मर गई है सो वो  माइके गई है  साहब ,हाथ जोड़े वह दीन भाषा में बोला । चल बड़ी  भूख लगी है ,मुर्गा सुरगा है तेरे पास  ,जी है साब, अभी लता हूँ ,अकरम जल्दी से भागता हुआ मुर्गों के दड़बे पर गया और एक बड़ा मुर्गा ले आया ,और छुरी ले कर खुद ही काटने लगा । दोनों अकरम को मुर्गा रोस्ट करके लाने का आदेश दे कर अपने साथ लाये भारी भरकम मोबाइल सेट से बात करने लगे ,अकरम डरा हुआ सुलगते तंदूर में लकड़ी डालने लगा ताकि तंदूर को फिर से गरम किया जा सके । आधी रात में उसके घर की चिमनी से धुंआ उठता देखा गश्त कर कर रहे फौजी भी अकरम के घर की ओर बढ़ चले , तंदूर गरम हो चुका  था , फिर से  दरवाजे के खटखटाने की आवाज़ से अकरम समझ गया ,और वे दोनों एक कोने में चिपक  कर खड़े हो गए, दोनों ने  अपने हाथों की अंगुली को ट्रिगर पर रखा था , अकरम ने दरवाजा खोला, तेज़ रोशनी वाली टॉर्च की रोशनी से उसका सामना हुआ, और कौन है घर के अंदर, कोई नहीं साब  मैं अकेला हूँ , तो ये धुआँ कहाँ  से उठ रहा है ,,साबजी बीबी घर पर नहीं  है भूखे  सो गया था , साबजी नींद नहीं आ रही थी सो रोटी बना रहा था साबजी ... फौजी उल्टे पाँव वापस लौट गए, उसने राहत की सांस ली ।
दरअसल फौज को आधी रात में चिमनियों से निकलने वाले धुंऐ से अंदाज़ा हो जाता था ,पर वो कोई ऑपरेशन किसी के घर में रात में नहीं करते, किन्तु उस घर पर निगरानी रखते थे । अकरम ने देशी मसालों में लपेटकर मुर्गे को तंदूर में पकाया और उन्हें सौंप दिया ,टाइगर ने अपने बैग  से विदेशी शराब की बोतल निकाली और इस तरह पीने लगा  जैसे कई दिनों  से कुछ खाया पीया ही  न हो  ,शुरूर चढ़ने  लगा और वे लुढ़क कर फर्श पर बिछे कालीन पर अपने बैग  को तकिया बना सो गाए , सोते समय अकरम को कहा कि सवेरे वाली आजान के समय उठा देना ,अकरम रात भर वहीं बैठा रहा ,उन दोनों को देखता, मन ही मन सोचता कि ये जेहाद की बात करने वालों का पेट कौन भरता  है , इतने मंहगे हथियार , इनकी कीमत से तो आराम से जिंदगी कट सकती है , हम जैसों के लिए बच्चों की भूख शांत करना सबसे बड़ा जेहाद है , जानवर , मुर्गी न पालो तो खेती से  पेट भी नहीं भर सकता   , बार बार उसका ध्यान तहखाने की तरफ भी जा रहा था ,वे सब भी वहाँ परेशान होंगे ,शुक्र है इन कमीनों को उनका पता नहीं चला, अकरम रात भर वहीं फर्श पर बैठा अपने आप से बातें करता रहा ।
देखते देखते सुबह की पहली अज़ान का वक़्त हो गया , अज़ान शुरू होते ही अकरम ने उन्हें  जगाया , दोनों आंखे मसलते हुये जाग गए, टाइगर  ने अकरम से पूंछा वज़ू कहाँ करते हो ,अकरम ने बाहर इशारा करते हुये कहा ,साबजी बगल वाले चश्में मेँ ,चश्मा नाले की मुंडेर पर था और उसका पानी लगातार नाले में समाता  था , साफ पानी का है साबजी , टाइगर उसे घूरते हुये एक हाथ मेँ टॉर्च लिए बाहर चल पड़ा , बाहर अभी भी अंधेरा ही था  ,दबे कदमों से जैसे ही नाले की ढाल की कोर पर पहुंचा किसी ने उसके सिर पर करारा वार किया ,टाइगर गोल गोल बड़े पत्थरों के साथ निस्तेज हो कर नाले के तेज़ बहाव मेँ औंधे मुंह गिर पड़ा , सुबह सुबह की आजान मेँ उसकी चीख  दब के रह गई, दूसरा साथी और अकरम उसका इंतज़ार कर रहे थे ,चिड़ियों का चहकना शुरू हो गया था ,अंधेरा धीरे धीरे दूर हो रहा था ,दोनों  घबराए हुये थे ,क्या हुआ टाइगर वापस नहीं आया, टाइगर पांचों वक़्त का नमाज़ी था ,खतरों से खेलना  जानता था ,कहीं मुझे छोड़ कर भाग तो नहीं गया ,नहीं नहीं वो मर सकता है  पर मुझे छोड़ कर भाग नहीं सकता ,दोनों  बात ही कर रहे थे कि दरवाजे पर जूते पटकने की  आवाज़ हुयी , अकरम ने टाइगर के लौटने का सोच कर दरवाजा खोला, किन्तु सामने फौजी दस्ता था दूसरा साथी कुछ संभल पाता  उससे पहले सैनिकों ने उसे दबोच लिया ,सैनिक दस्ते के कमांडर ने पूंछा  और कितने हैं ,अकरम ने कहा साबजी एक बाहर वज़ू करने गया था, पता नहीं, अभी तक आया नहीं ,सैनिकों  ने पूरे घर की तलाशी ली ,बाहर निकल  कर पीछे के  रास्ते तहखाने के मुहाने तक पहुंचे ही थे ,कि  रेशमा  खून से लथपथ हाथ में गंड़ासा लिए खड़ी थी , उसकी आँखों में क्रोध और बदन खौफ से  सहमा था ,हर वक़्त अपने सिर को दुपट्टे से बांधे  रखने वाली रेशमा  का दुपट्टा कहीं गायब था ,बाल  बिखरे थे ,गरज कर बोली “हाँ मैंने उस कुत्ते को  मार डाला ,हाँ हाँ मैंने ही मार डाला उसे ” .... सब आवाक थे, वह चिल्लाते हुये दूसरे साथी पर झपट्टा मारने को बढ़ी, परंतु  सैनिकों ने उसे रोक दिया ,अकरम भी बड़े  आश्चर्य से रेशमा को देख रहा था ,बच्चे बेसुध सोये थे ,सुबह होते ही गाँव के लोग टाइगर  को देखने नाले के पास उमड़े ,टाइगर पानी  के तेज़ बहाव में  एक बड़े पत्थर से अटका था, रेशमा पूरे गाँव की शान थी , पूरे गाँव में रेशमा की चर्चा थी ,रेशमा की बहादुरी से प्रेरित गाँव वालों ने ग्रामीण रक्षा दल बनाया ,नतीजतन बेतार नाले के किनारे से इन क्रूर विदेशी मेहमानों ने आना बंद कर दिया । अब मक्के  के खेतों में दहशत नहीं उगती ।   

                                          अनिल कुमार सिंह


(यह सुनी सुनाई वारदातों पर आधारित कपोल कल्पित कहानी है ,किसी जीवित पत्र से मेल संयोग हो सकता है )