बुझती नहीं ताउम्र एक बार जो जल जाती है,
वक़्त के कदमों तले वो राख़ में छिप जाती है ।
बेचैन रहती थी जो एक झलक पाने को ,
सामना होते ही वो अंजान नज़र आती है,
पास आते ही जो गले लग के लिपट जाते थे ,
देख कर दूर से अब राह ही मुड़ जाती है,
पतंग की डोर से पहुंचाते थे जो खत मुझको,
हाल उनका ये हवाएँ भी नहीं बताती हैं,
याद आ जाऊँ मैं शायद उन्हें फुर्सत में,
सुना है उनको अब फुर्सत नहीं मिल पाती है,
बेसब्र हवाओं से कभी राख़ जो उड़ जाती है,
एक दबी आग फिर से उभर जाती है।
वक़्त के कदमों तले वो राख़ में छिप जाती है ।
बेचैन रहती थी जो एक झलक पाने को ,
सामना होते ही वो अंजान नज़र आती है,
पास आते ही जो गले लग के लिपट जाते थे ,
देख कर दूर से अब राह ही मुड़ जाती है,
पतंग की डोर से पहुंचाते थे जो खत मुझको,
हाल उनका ये हवाएँ भी नहीं बताती हैं,
याद आ जाऊँ मैं शायद उन्हें फुर्सत में,
सुना है उनको अब फुर्सत नहीं मिल पाती है,
बेसब्र हवाओं से कभी राख़ जो उड़ जाती है,
एक दबी आग फिर से उभर जाती है।