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Saturday, 13 June 2015
अपनों की मुहब्बत
मुहब्बत के आईने पर जमी ओस को
निगाहों के नर्म कपड़े से हटा कर देखा ....
कुछ बिखरी संवरी मुहब्बतों के अक्स
रोती हँसती कुछ कहती आँखें ,
गले लगाने को बेताब बढ़ी हुयी बाहें ...
नहीं नहीं .... ये वो मुहब्बत नहीं ...
जो टूट कर बिखर चुकी थी कभी .....
ये वो मुहब्बतें थी
जो धूमिल भी नहीं होती कभी ,
ये मुहब्बतें मेरे अपनों की ....
कलाई के धागों और माथे के टीकों की ,
बचपन के खेल और ऊंचे ऊंचे सपनों की ,
हाँ, बेहद मुहब्बत करते हैं मेरे अपने मुझसे ,
काश! वक़्त भी कुछ रहम करता ,
मेरी अपनों से दूरी कुछ कम करता ...
अनिल कुमार सिंह
निगाहों के नर्म कपड़े से हटा कर देखा ....
कुछ बिखरी संवरी मुहब्बतों के अक्स
रोती हँसती कुछ कहती आँखें ,
गले लगाने को बेताब बढ़ी हुयी बाहें ...
नहीं नहीं .... ये वो मुहब्बत नहीं ...
जो टूट कर बिखर चुकी थी कभी .....
ये वो मुहब्बतें थी
जो धूमिल भी नहीं होती कभी ,
ये मुहब्बतें मेरे अपनों की ....
कलाई के धागों और माथे के टीकों की ,
बचपन के खेल और ऊंचे ऊंचे सपनों की ,
हाँ, बेहद मुहब्बत करते हैं मेरे अपने मुझसे ,
काश! वक़्त भी कुछ रहम करता ,
मेरी अपनों से दूरी कुछ कम करता ...
अनिल कुमार सिंह
Sunday, 7 June 2015
विभव और वैभव
विभव ..
चमकती बिजलियों का,
शून्य हो जाता है
धरा के संसर्ग से ,
जमी पर चलने वाला
आसमान में चमकना चाहता है ,
विभव नहीं ,
अहंकार है
अपने वैभव पर
अपनी पहुँच
और ठाठ बाट पर ,
भूल मत कि
श्रेष्ठ राजा भी बिके थे
डोम के घर घाट पर,
कहाँ गया वैभव अकबर का ,
कुबेर और कर्ण का
क्या कहीं शेष है ?
यह सत्य नहीं कि
गगन में होता छेद है ,
दंभ- वश करता
मनुज मनुज में भेद है ,
हाथों की लकीरों को
बदलने का सचमुच
सामर्थ्य है तुझमें ,
तो सुन,
बदल उन हाथों की लकीरों को ,
जो तेरे सामने दीनता -वश फैलते हैं ,
गौर से देख उनकी भी
आँखों में कुछ सपने तैरते है ,
दिखेगा कहाँ से ,जमीं पर चलोगे तब न ........ दरिद्र देव की सेवा हेतु समर्पित॥
चमकती बिजलियों का,
शून्य हो जाता है
धरा के संसर्ग से ,
जमी पर चलने वाला
आसमान में चमकना चाहता है ,
विभव नहीं ,
अहंकार है
अपने वैभव पर
अपनी पहुँच
और ठाठ बाट पर ,
भूल मत कि
श्रेष्ठ राजा भी बिके थे
डोम के घर घाट पर,
कहाँ गया वैभव अकबर का ,
कुबेर और कर्ण का
क्या कहीं शेष है ?
यह सत्य नहीं कि
गगन में होता छेद है ,
दंभ- वश करता
मनुज मनुज में भेद है ,
हाथों की लकीरों को
बदलने का सचमुच
सामर्थ्य है तुझमें ,
तो सुन,
बदल उन हाथों की लकीरों को ,
जो तेरे सामने दीनता -वश फैलते हैं ,
गौर से देख उनकी भी
आँखों में कुछ सपने तैरते है ,
दिखेगा कहाँ से ,जमीं पर चलोगे तब न ........ दरिद्र देव की सेवा हेतु समर्पित॥
अनिल कुमार सिंह
Saturday, 6 June 2015
Wednesday, 3 June 2015
Tuesday, 2 June 2015
मुझे मंज़िलों की तलाश है
मुझे मंज़िलों का पता नहीं
मेरे रास्ते मेरे साथ हैं,
तुझे सिर्फ मेरी ही प्यास है,
मुझे मंज़िलों की तलाश है।
तूँ खड़ा जो मेरी राह में ,
मुझे ताकने की चाह में,
तुझे एक नज़र की आश है ,
मुझे मंज़िलों की तलाश है।
मुझे बच के चलने का हुक्म है,
मेरी एक नज़र भी ज़ुल्म है ,
तेरे सौ गुनाह भी माफ हैं,
मुझे मंज़िलों की तलाश है।
तेरी फब्तियाँ तेरी मस्तियाँ ,
खामोश रहती ये बस्तियाँ,
सब जानकर चुपचाप हैं,
मुझे मंज़िलों की तलाश है।
तेरा जुनून तेरी आशिक़ी ,
मेरा जुनून मेरी मंज़िलें ,
मेरी बंदगी मेरे साथ हैं ,
मुझे मंज़िलों की तलाश है।
मेरे रास्ते मेरे साथ हैं,
तुझे सिर्फ मेरी ही प्यास है,
मुझे मंज़िलों की तलाश है।
तूँ खड़ा जो मेरी राह में ,
मुझे ताकने की चाह में,
तुझे एक नज़र की आश है ,
मुझे मंज़िलों की तलाश है।
मुझे बच के चलने का हुक्म है,
मेरी एक नज़र भी ज़ुल्म है ,
तेरे सौ गुनाह भी माफ हैं,
मुझे मंज़िलों की तलाश है।
तेरी फब्तियाँ तेरी मस्तियाँ ,
खामोश रहती ये बस्तियाँ,
सब जानकर चुपचाप हैं,
मुझे मंज़िलों की तलाश है।
तेरा जुनून तेरी आशिक़ी ,
मेरा जुनून मेरी मंज़िलें ,
मेरी बंदगी मेरे साथ हैं ,
मुझे मंज़िलों की तलाश है।
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