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Monday, 27 July 2015
Saturday, 25 July 2015
बचपन
मन करता है
अब भी,
वहीं कहीं पर
मिल जाएगा ,
कुछ बिखरा सा
बिछड़ा
बचपन,
गर ढूढ़ें
तो मिल जाएंगे
रेल की
पटरी किनारे
दस पैसे के
पिचके सिक्के
और टूटी चूड़ी के छल्ले ,
मुझे यकीं है
तब का खोया
बचपन अब भी
वहीं पड़ा है....
रेल की
पटरी किनारे ......
वर्षों पहले बिछुड़ गया जो .....
अब भी,
वहीं कहीं पर
मिल जाएगा ,
कुछ बिखरा सा
बिछड़ा
बचपन,
गर ढूढ़ें
तो मिल जाएंगे
रेल की
पटरी किनारे
दस पैसे के
पिचके सिक्के
और टूटी चूड़ी के छल्ले ,
मुझे यकीं है
तब का खोया
बचपन अब भी
वहीं पड़ा है....
रेल की
पटरी किनारे ......
वर्षों पहले बिछुड़ गया जो .....
दुःखद
गिर न जाए वो कहीं जीवन डगर से ,
भागते देखा जिसे अपने ही घर से ,
यह सोच कर ,वो लौट के न आएगी ,
कि गिर चुकी है अब वो दुनियाँ की नज़र से ,
------------
भागते देखा जिसे अपने ही घर से ,
यह सोच कर ,वो लौट के न आएगी ,
कि गिर चुकी है अब वो दुनियाँ की नज़र से ,
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आज के अखबार में ये छपा है
एक पिता ने अपनी पुत्री का वध किया है ......
अनिल
एक पिता ने अपनी पुत्री का वध किया है ......
अनिल
Wednesday, 15 July 2015
सीता राम बोले अयोध्या नगरी सारी,
सदियों से व्याकुल है कैसी लाचारी ।
मेला का रेला है कछु दिन क खेला ,
भीड़ घटी गलियन में भूखे भिखारी ,
सीता राम धुन सत्तोंह बजत है ,
मंदिर बहुत और थोड़े पुजारी .........
सदियों से व्याकुल है कैसी लाचारी ।
मेला का रेला है कछु दिन क खेला ,
भीड़ घटी गलियन में भूखे भिखारी ,
सीता राम धुन सत्तोंह बजत है ,
मंदिर बहुत और थोड़े पुजारी .........
नंगे पाँव भक्त धरे गठरी कपारी,
सतुआ और भूजा संग सुर्ती सुपारी ,
पुलिस पिशाच लिए हाथे में डंडा ,
खदेड़े हैं सबका नर हो या नारी .......
ज़ोर ज़ोर पुकारें प्रसाद व्यापारी ,
रास्ता रोकें रिक्शा , गइया महतारी ,
धड़ धडाय धुआँ उड़ावत चलत है ,
टंपू हैं ज्यादा और कम है सवारी ......
हनुमत लला से कहें कनक बिहारी ,
व्यर्थ लंक जारि रावण को मारी ,
एक एक पापी आय भोग चढ़ावें ,
मारे के गुंडा बने तोहरे दरबारी...
सीता राम बोले अयोध्या नगरी सारी,
सदियों से व्याकुल है कैसी लाचारी ।
अनिल
सतुआ और भूजा संग सुर्ती सुपारी ,
पुलिस पिशाच लिए हाथे में डंडा ,
खदेड़े हैं सबका नर हो या नारी .......
ज़ोर ज़ोर पुकारें प्रसाद व्यापारी ,
रास्ता रोकें रिक्शा , गइया महतारी ,
धड़ धडाय धुआँ उड़ावत चलत है ,
टंपू हैं ज्यादा और कम है सवारी ......
हनुमत लला से कहें कनक बिहारी ,
व्यर्थ लंक जारि रावण को मारी ,
एक एक पापी आय भोग चढ़ावें ,
मारे के गुंडा बने तोहरे दरबारी...
सीता राम बोले अयोध्या नगरी सारी,
सदियों से व्याकुल है कैसी लाचारी ।
अनिल
टूटते बहुत हैं तुझे याद कर करके ,
हम चाहने वाले हैं तेरे ,रूठते नहीं ।
आज़माने वाले मुहब्बत को मौत से ,
तेरे दिखाये ख्वाब कभी भूलते नहीं ।
हम चाहने वाले हैं तेरे ,रूठते नहीं ।
आज़माने वाले मुहब्बत को मौत से ,
तेरे दिखाये ख्वाब कभी भूलते नहीं ।
इक इक खुशी पे तेरी ,सब झूमते रहे ,
हम मिटते रहे तुझपे ,तुझे फुरसतें नहीं।
यादों के पत्ते पत्ते तेरा नाम ले रहे,
मुरझा चुके हैं फिर भी , कभी टूटते नहीं।
दरिया के किनारों की तक़दीर क्या कहें,
मिलते नहीं कभी भी ,हाथ छूटते नहीं।
अनिल
हम मिटते रहे तुझपे ,तुझे फुरसतें नहीं।
यादों के पत्ते पत्ते तेरा नाम ले रहे,
मुरझा चुके हैं फिर भी , कभी टूटते नहीं।
दरिया के किनारों की तक़दीर क्या कहें,
मिलते नहीं कभी भी ,हाथ छूटते नहीं।
अनिल
Thursday, 9 July 2015
मैं कवि नहीं ,लेखक नहीं
अन्तर्मन के द्वंद्वो को
सीधे और सरल शब्दों में,
निष्काम भाव से मैं लिखता हूँ
मैं कवि नहीं ,लेखक नहीं ,
लिखने भर को बस लिखता हूँ।
सीधे और सरल शब्दों में,
निष्काम भाव से मैं लिखता हूँ
मैं कवि नहीं ,लेखक नहीं ,
लिखने भर को बस लिखता हूँ।
साहित्य व्योम के अगिनित तारे ,
प्रेरित करते हैं ये सारे ,
कोई चमकता ,कोई टूटता ,
कोई समूह बना कर चलता ,
कोई बिखरता जर्रा जर्रा ,
धरती से देखा करता हूँ ....
मैं कवि नहीं ,लेखक नहीं ,
लिखने भर को बस लिखता हूँ।
मेरे अपने मेरे सपने
कुछ छूटे कुछ साथ बचे हैं ,
उड़ सकने को पंख नहीं थे,
फिर भी कुछ अरमान बचे हैं,
अरमानो के इस जुगनू को ,
दिन में भी देखा करता हूँ ,
मैं कवि नहीं ,लेखक नहीं ,
लिखने भर को बस लिखता हूँ।
अनिल
प्रेरित करते हैं ये सारे ,
कोई चमकता ,कोई टूटता ,
कोई समूह बना कर चलता ,
कोई बिखरता जर्रा जर्रा ,
धरती से देखा करता हूँ ....
मैं कवि नहीं ,लेखक नहीं ,
लिखने भर को बस लिखता हूँ।
मेरे अपने मेरे सपने
कुछ छूटे कुछ साथ बचे हैं ,
उड़ सकने को पंख नहीं थे,
फिर भी कुछ अरमान बचे हैं,
अरमानो के इस जुगनू को ,
दिन में भी देखा करता हूँ ,
मैं कवि नहीं ,लेखक नहीं ,
लिखने भर को बस लिखता हूँ।
अनिल
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