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Monday, 26 November 2012

बंधन

आवरण चहुँ  ओर का,
क्यों बांधता है मुझे,
क्यों घेरता है मुझे,
सीमित दायरों  के 
बन्धनों में,
और समय के 
साथ साथ 
मेरे देश के ,
मेरे धर्म के ,
मेरी जाति  के ,
मेरे कर्म के ,
बन्धनो में 
जकड़ता जाता है,
ये बंधन जो पोषक है,
नफरतों का,द्वेष का,
विभाजित परिवेश का ,
जो बांटता है,
खुदा से भगवान् को,
इंसान से इंसान को,
इस जमीं
और आसमान को,
काश मेरा स्वप्न भी
साकार हो ,
सार्वभौमिक समग्र
संसार हो,

पंख फैलें जब कभी
उड़ान को,
न कहीं कोई भी
दीवार हो।



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