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Saturday, 13 June 2015

अपनों की मुहब्बत

मुहब्बत के आईने पर जमी ओस को
निगाहों के नर्म कपड़े से हटा कर देखा ....

कुछ बिखरी संवरी मुहब्बतों के अक्स 
रोती हँसती कुछ कहती  आँखें ,
गले लगाने को बेताब बढ़ी हुयी बाहें ...

नहीं नहीं .... ये वो मुहब्बत नहीं ...
जो टूट कर बिखर चुकी थी कभी  .....
ये वो मुहब्बतें थी
जो  धूमिल भी नहीं होती कभी  ,
ये मुहब्बतें मेरे अपनों की ....
कलाई के धागों और माथे के टीकों की ,
बचपन के खेल और ऊंचे ऊंचे सपनों की ,

हाँ, बेहद मुहब्बत करते हैं मेरे अपने मुझसे ,
काश! वक़्त भी कुछ रहम करता ,
मेरी अपनों  से दूरी कुछ कम करता ...


अनिल कुमार सिंह

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