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Sunday, 7 June 2015

विभव और वैभव

विभव ..
चमकती बिजलियों का,
शून्य हो जाता है
धरा के संसर्ग से ,
जमी पर चलने वाला
आसमान में चमकना चाहता है ,
विभव नहीं ,
अहंकार है
अपने वैभव पर
अपनी पहुँच
और ठाठ बाट पर ,
भूल मत कि
श्रेष्ठ राजा भी बिके थे
डोम के घर घाट पर,
कहाँ गया वैभव अकबर का ,
कुबेर और कर्ण का
क्या कहीं शेष है ?
यह सत्य नहीं कि
गगन में होता छेद है ,
दंभ- वश करता
मनुज मनुज में भेद है ,
हाथों की लकीरों को
बदलने का सचमुच
सामर्थ्य है तुझमें ,
तो सुन,
बदल उन हाथों की लकीरों को ,
जो तेरे सामने दीनता -वश फैलते हैं ,
गौर से देख उनकी भी
आँखों में कुछ सपने तैरते है ,
दिखेगा कहाँ से ,जमीं पर चलोगे तब न ........ दरिद्र देव की सेवा हेतु समर्पित॥

अनिल कुमार सिंह

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