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Thursday 28 May 2015

प्रेम पथिक चल जरा संभल

हे प्रेम पथिक चल जरा संभल
तेरी राह में हैं हर पल नव छल
स्वार्थ  लोभ से छिद्र छिद्र है
व्याकुल प्रेम पटल कोमल ....

जाति धर्म  और ऊंच नीच सब
आँधी पतझड़ ज्वालामुखी से ,
वेग ताप और दाब असहनीय
कोमल किसलय जाते हैं जल
हे प्रेम पथिक चल जरा संभल ....

बातों का भ्रमजाल मनोहर
संग जीने मरने की कसमें
प्रेम तन्तु से अधर लटकते 
नीचे आग उगलते दलदल
हे प्रेम पथिक चल जरा संभल ....

व्यर्थ नहीं ये प्रेम शब्द पर
चौकस रहना इसके पथ पर 
जीवन अमृत का यह सागर
नव कोपल सा नाज़ुक निर्मल
हे प्रेम पथिक चल जरा संभल
तेरी राह में हैं हर पल नव छल ....

अनिल कुमार सिंह

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