स्वप्न ओझल हो गए
स्वप्नों के बाज़ार से ,
कौन बुझा बैठा
चिरागों को
दरों दीवार से ,
जूझते हैं हौसले
इन अँधेरों से मगर ,
हारता हर एक मांझी
अपनी ही पतवार से ,
तमस बाहर का
अन्तः ज्वाला को
हरा सकता नहीं,
जो खुद बुझा हो
दूसरा दीपक
जला सकता नहीं ,
गिराओ तुम हमें
हम उठेंगे
और भी दम से,
साधना गर लक्ष्य तो
ये सीख लो हमसे ,
जला कर इन चिरागों को
सजाएँ फिर से सपनों को
लगा कर बोलियाँ उनकी
तलाशें बिछुड़े अपनों को ।
स्वप्नों के बाज़ार से ,
कौन बुझा बैठा
चिरागों को
दरों दीवार से ,
जूझते हैं हौसले
इन अँधेरों से मगर ,
हारता हर एक मांझी
अपनी ही पतवार से ,
तमस बाहर का
अन्तः ज्वाला को
हरा सकता नहीं,
जो खुद बुझा हो
दूसरा दीपक
जला सकता नहीं ,
गिराओ तुम हमें
हम उठेंगे
और भी दम से,
साधना गर लक्ष्य तो
ये सीख लो हमसे ,
जला कर इन चिरागों को
सजाएँ फिर से सपनों को
लगा कर बोलियाँ उनकी
तलाशें बिछुड़े अपनों को ।
अनिल
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