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Monday 24 August 2015

देखता हूँ ज़िंदगी को

हथेलियों के कागजों पर
नित रोज़ नव रेखा बनाती ,
देखता हूँ ज़िंदगी को ,
ठोकरों में गुनगुनाती।
कार के शीशे पे ठक ठक
जब कभी आवाज आती
हाथ में पोंछा लिए
फटेहाल फिर भी मुस्कराती ,
देखता हूँ ज़िंदगी को ,
ठोकरों में गुनगुनाती।
ट्रेन की खिड़कियों में ,
दिख जाती है वो अक्सर ,
रंगों से खुद को सजाकर ,
कुछ खिलौने टनटनाती,
देखता हूँ ज़िंदगी को ,
ठोकरों में गुनगुनाती।
हाथ ले लोहे का सरिया ,
कांधे पर प्लास्टिक की बोरिया ,
पौ फटते ही निकल पड़ती है ,
शहर को अपने संवारती ,
देखता हूँ ज़िंदगी को ,
ठोकरों में गुनगुनाती।
अनिल कुमार सिंह

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