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Friday 25 December 2015

स्मृतियों के अवशेषों के दरवाजों को
खटखटाते हैं ,कुछ ऋतुओं के पल ,
कुछ नहीं बस कंटकों के शीर्ष पर,
कहीं कहीं कुछ फूल मुरझाए पड़े हैं ,
उदास रंगों से कह जाते है जैसे ,
सूख कर हम ,अब भी हैं महकते ,
न न, छूना नहीं एक पल में बिखर जाएँगे,
ये बिछुड़ी मुहब्बत है ,बस दूर से ही महकने दो ...........

अनिल

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